ADHURI KAVITA SMRITI
सोमवार, 8 मई 2017
757 . असि त्रिशूल गहि महिष विदारिणि। जंभाविनि जगतारण कारिणि।।
७५७
असि त्रिशूल गहि महिष विदारिणि। जंभाविनि जगतारण कारिणि।।
च
ण्ड
मुण्ड वध कय सुरकाजे। शुम्भ निशुम्भ वधइते देवि छाजे।।
सकल देवगण निर्भय दाता। सिंह चढ़ लिखा फिर माता।।
बहुपतीन्द्र देव कएल प्रणामे। देवि प्रसादे पुरओ मोर कामे।।
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