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हे देवि शरण राख भवानि।
मन वच करम करओ सान किछु से सवे तुअ पद जानि।।
हमे अति दीन खीन तुअ सेवा राखह निय जन जानि।।
अविनय मोर अपराध सम्भव मन जनु राखह आनि।
अओर इतर जन जग जत से सवे गुण रसमय से वानि।।
तुअ पदकमल भमर मोर मानस जनमे जनमे एहो भानि।
भूपतीन्द्र नृप एहो रस गावे जय गिरिजापति बानि।।
भूपतीन्द्रमल्ल ( हिस्ट्री ऑफ़ मैथिली लिटरेचर )
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