187 .
बिखर गया जब एक - एक पौधा
चमन रहा बाँकी कहाँ
उजड़ गया जब चमन ही सारा
खुशबु लुटाये कौन
एक बेचारा चाहत में सबके
रो - रो दिन असुवन के काटे
रातें यादों से
फूल खिले वहाँ कैसे
गम के काँटे जहाँ बढ़े
बंजर जमीन से पानी की चाहत
सिवाय तृष्णा के
होगी ये कौन सी बाबत
मिली जब खाख में मोहब्बत
जीने की ये आफ़त
आकर बता जाती है हकिकत
चाँदी की कुछ परत
चढ़ा जाती है मुलम्मा
बन जाती है ये जफा का दरख़्त
तेरी बेवफाई के बाद भी
न जाने मिटती नहीं क्यों तेरी चाहत ?
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 09-02-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
186 .
ऐ हमसफ़र
छोड़ दे साथ मेरा
मैं तो डूब रहा हूँ
कल को क्या होगा तेरा ?
बुझा हुआ चिराग हूँ
जलाने की कोशिश न कर
तेल भी ख़त्म हो चुकी है
कूँआ खोदने की कोशिश न कर !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 09-02-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
185 .
देख मैं कितना मुर्ख हूँ
किसी से भी अपनेपन की आशा करता हूँ
ना जाने क्यों सबको अपना समझता हूँ
पर जबकि सच यह है
कि जब तूँ अपनी न हो सकी
तो जग में कोई ऐसा भी होगा क्या ?
जो मेरा अपना हो सके
मुझको अपना समझ सके !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 13-12-1983
चित्र गूगल के सौजन्य से
184 .
कुछ न भाता कुछ न सुहाता
ह्रदय पर निराशा छाया रहता
दर - दर मन भटकता रहता
गम का प्याला भरता रहता
मज़बूरी का बोझ है बढ़ता
आशा का दीप है बुझता
जिन्दगी दूर होती सी लगती
मौत करीब आ रही लगता
मैं जग से दूर होता जा रहा
जग मुझसे दूर
दिन जा रहा है ढ़लता
शाम गहराती जा रही
चाँद जा रहा है छिपता
बादल फैलती जा रही
सभी हँसते हैं मैं रहा रोता
सोना भी न सुहाता
इच्छा यही करता रहता
चार आँखें कर लूँ
मोहब्बत कर मुख तुम्हारी चूम लूँ
तड़प - तड़प कर रहता हूँ
किसी से कुछ न कहता हूँ
सिर्फ तुम्हे ही अर्ज अपना हूँ सुनाता !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 29-01-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
183 .
अपने शब्दों के जाल से
भले लाख चाहे कोई
खुद को ढांपना
पर हर इंसान है नंगा मेरे सामने !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 29-01-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
182 .
जिन्दगी को बहुत करीब से मैंने देखा है
तुझे हर पल में हम और तुम का फर्क करते देखा है
कई बार हो चुके हैं दिलों के टुकड़े
पर वक्त के साथ जख्मों को भरते देखा है
हर को समझ ज़माने का साथ दिया
मतलब निकाल अपना हर को भागते देखा है
मरते हैं सभी एक न एक दिन
सबों को एक दिन रोते देखा है
मैं मरा नहीं हूँ अब तक
पर हर क्षण अपने आपको अपने सामने मरते देखा है
पला हूँ गरीबी में रहा नहीं कभी अमीरी में
ज़माने ने भी बेहद सताया है
महाजनों को भी आँखे दिखाते देखा है
होकर बेकसूर सही है बेइज्जती मैंने
अपनी हर मज़बूरी पर सबको हँसते देखा है
बड़ी मुश्किल से जिन्दगी में किसी का प्यार आया
तभी से उसको चाहा जब से उसे देखा है
उधर भी तभी से चाह थी
जब से उसने मुझे देखा है
देखी गयी न ये भी बात ज़माने को
अपने प्यार में भी ज़माने को आग लगाते देखा है
दिल थे टूटे जब तक तो जुटते भी थे
पर इस बार दिल को चूर - चूर होते देखा है
' सवेरा ' न कभी हारा था न कभी हारेगा
अपने को हरदम हँसते पाया था पायेगा
पढ़ के ' सवेरा ' के इस हाशिये को
हर के आँखों में झूठी सहानभूति को देखा है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 11-02-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
181 .
तुमको देख आँखें वैरण छल छला आयी
देखते ही तुम्हे एक भूली सी कहानी याद आयी
तुम जानती हो तुम्हारा ही था ह्रदय यह
भले ही तुम होकर भी अपनी
आज कहलाती हो परायी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 10-01-1984
चित्र गूगल के सौजन्य से
180 .
कोई कोई नागिन समान होती है नारी
कठोर वक्ष पत्थर दिल नीरस हों जिसके प्राण
शब्द स्पर्श से पिघले न जिसके प्राण
बना देती जीवन को हलाहल
कर देती वो सर्वनाश
कर ताण्डव नृत्य वो
फिर भी न पाती चैन
कर देती भंग दूसरों का शील
चुकता करती भावुकता का मूल्य
तन मन भी क्यों न देतें हों झोंक !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
चित्र गूगल के सौजन्य से
179 .
अब होगी केवल बेवफाई का आलम
इस जहाँ में
जो भी करेगा वफ़ा
रोता रह जाएगा इस जहाँ में
होगी न पूरी किसी की मुराद
खुदा भी हो गया है बहरा
चीखो चिल्लाओ कितना भी
सुनेगा न कोई तेरी फरियाद !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 10-01-1984
चित्र गूगल के सौजन्य से
178 .
भूलों की एक याद
यादों की एक भूल
मन में भरती रहती है एक टीस
प्रिया की याद
यादों की बौछार
उसपे ये तन्हाई का आलम
और ये सावन की बहार
एक वर्ष बीते
युग जीते
पाया सुख हर सिंगार
तब कहीं थे
आज कहीं हैं
पर होगा हर जन्म में
ये बार - बार
राखी का त्यौहार
मिला न बहना का प्यार
बंजारे की जिन्दगी
फूल खिली नहीं
मुरझा जायेगी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 04-08-1982
चित्र गूगल के सौजन्य से
177 .
इस तन्हाई का ये तन्हा
लगता है इक अपना
जीवन में है एक
बस उम्मिदों का सपना
बहुत चाहता हूँ कहना
कैसे कहूँ
जब एहसास तुम्हारी होती है
तुम लगती हो बिलकुल अपना
ऐसे लगता है जैसे
छू लिए हों तुझे
खोता हूँ जब याद में तेरे
होती हो उस वक्त बाहों में मेरे
चूम लेता हूँ तुझको किस कदर
कैसे कहूँ
होती हो कितने पास तुम
होकर भी दूर इतनी
ये कैसे कहूँ
साँस से साँस टकरा जाती है
दो धड़कने भी एक हो जाती है
फिज़ा भी कैसे बहक जाती है
ये कैसे कहूँ
बह रही है बयार
या तेरे बालों की खुशबु की है महक !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 23-10-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
176 .
दुनियाँ वालों सुन लो तुम भी
एक दिवाना हूँ मैं भी
चाहे इधर
चाहे उधर
तुम देखो जिधर
मैं आऊं नज़र उधर ही उधर
चाहो या न चाहो सुनो तुम भी
दिल की है एक दास्ताँ मेरी भी
खाता हूँ
पीता हूँ
मौज मस्ती से
जिन्दगी बसर अपना करता हूँ
पर दिले दर्द की है एक टीस मेरी भी
एक ही है मेरी जान मेरी जिन्दगी भी
नाम से जिसके
मधु का स्वाद
माँ का प्यार
दोनों ही परिलक्षित होता है
अब ओ बिछर गया है मुझ से
पर आशा है मिलेगी कभी न कभी
यादों में ख्यालों में
बसती है वो
मेरी हर साँसों में
समझो न
देखो न
मुझसे दूर
तुम जाओ ना
हो जाओगी दूर अगर तुम भी
क्या रह पाऊंगा जिन्दा फिर भी
एक नज़र
इस तरफ
देखो तो
कितनी है तड़प
तेरे प्यार में हो जाऊँगा दीवाना भी
पर तुझको क्या खबर हो पाएगी तब भी
एक तमन्ना
एक आरजू
एक ख्वाहिस
एक मिन्नत
एक फरियाद सुनो भी
एक बार तो आ जाओ भी
मेरे महल से
मेरे बगल से
मेरे दरो दिवार से
मेरे हर जर्रे - जर्रे से
तेरा ही नाम तेरी ही छाया
देखने को पढने को मिलेगी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 23-10-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
175 .
रिश्ता अपना ढूंढ़ रहा हूँ
मिल जाये कहीं कोई सहारा
गुजरा वक्त न बन जाऊं
कागज़ पे लिखी स्याही न बन जाऊं
बन जाऊं मैं कोई बसेरा
दिल के चमन में फूल खिले प्यार के
पतझड़ भी लग जाये गले बहार के
बह जाए सब ओर पवन प्यार के
दुश्मन भी लग जाए गले प्यार से
मिले मुझे भी प्यार अपने प्यार से
टूट - टूट कर कर कितनी बार दिल जुडा है मुश्किल से
इसे फिर न तोड़ना तुम इनकार से
गर हो कोई शिकवा गिला
कह दो मुझे प्यार से !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 04-03-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
174 .
मैं बहुत सहता हूँ
तुझसे डरता हूँ
ना जाने क्यों
तुम मुझसे प्यार करती हो या नहीं
मैं जानता नहीं
पर मैं तुझसे बेहद प्यार करता हूँ
ना जाने क्यों
मेरे तम तीमिर दूर हो जाते हैं
याद तुम्हारी आने से
तुम हो मेरी ऐसा ही समझता हूँ
ना जाने क्यों
क्या मैं तुम्हे कभी याद आता हूँ ?
मैं भी तुम्हे अच्छा लगता हूँ
मैं हरदम तेरे याद में रहता हूँ
ना जाने क्यों ?
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 04-03-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
173 .
फूलों में भी
तेरी महक समायी हुई है
तेरी घनी काली जुल्फों को देख
बादल भी जल रहे कड़क रहे हैं
कोयल की कूक ने
तेरे मीठे बोलों की
मुझको याद दिला दी है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 25-10-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
172 .
कोरे बालू के जमीन पर
लकीर खिंच गया कोई
अनछुई बालू ने
खिल कर ली अंगराई
उमंग भरा उल्लास जगा
जग की रीत भी भुलाई
भूल गयी सारी बातें
यौवन मद में डूब गयी
कुछ नहीं आता था नज़र
ऐसे में ही सावन आई
अभी - अभी यौवन ने ली थी अंगराई
बरस गया घमंडी बादल
लेकर बदला गर्मी का
प्यास बुझी नहीं बालू की
तपती हुई थी पूरी धरती
और अगन सी लग गयी
चिरकाल तक रहेगा बरसता सावन
बालू ने अपने मन में सोंची
पर बादल फटा बिजली कड़की
बाँट गया बादल को दो आधा
अब आसमान साफ़ था
मिट गया नामो निंसा बादल का
अब उस भींगी बालू के जमीन को
हुआ न ऐसा विश्वास कभी
रो - रो कर आँसू सुखाये
तप्त बनाली खुद को ऐसी
फ़िजा भी गर्म हो गयी उससे
खुद को तोड़ ली हर ओर से
ऐसे में आया एक हिम खंड
पर दरार न बालू का मिटा पाया
बालू को हर पल
बादल का ही अक्श नज़र आता था
पर हुआ एक दिन यों
हिम खंड ने अपनी ठंढक खो दी
लांघ गया मर्यादा को
खुद को पश्चाताप की आग में
झुलसाने के लिए
हिम खंड भी गल कर
जाएगा जब मिट
कोई और नया शिला खंड आएगा
गड़ कर बालू में खुद
एक नया सहारा देगा
बन कर मिल का पत्थर
' पथिक ' को राह बतलायेगा !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 06-07-1982
चित्र गूगल के सौजन्य से
171 .
आज बहुत तेरी याद सतायी है
सुबह से फुहारों की झड़ी लगी है
बिछुरने के बाद समझा
होता है प्यार क्या ?
बिछुरन का दर्द
दुश्मन को भी न मिले कभी
मेरे साँसों में बसी है
तेरे प्यार की खुशबु
ये बाहें तरपी हैं
गिन - गिन कर रातों को
गुजरा है दिन
गिन - गिन कर वादों को
पर मैं खुश हूँ
क्योंकि तुम खुश हो
दूर रहकर मुझसे तो चैन हो
अब तो न कहता होगा
कोई भी खुशामद से
एक मिट्ठी दो ना
न होती होगी अब मुझ से तंग
सोती होगी चैन की नींद
न कोई देता होगा ताना
न कसता होगा कोई फिकरा
देखो ! देखो !
मैं हूँ खुश कितना
न होता होगा अब तुम्हे
कोई शाररिक या आत्मिक कष्ट
बस एक ही बात
सताता है हर बार
प्यार किया तुझसे
तुझे बेइंतिहा दिल बुलाता है
जब भी भूलने की कोशिश करता हूँ
तेरी याद सताती है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 24-06-1982
चित्र गूगल के सौजन्य से
170 .
है उपासना ऐसी
सदा लगता है
हो अपने पास बैठी
सदा साथ रहता है
मन में तेरे साँसों का एहसास
लिखी है दास्ताँ दिल ने
सुनाई जा नहीं सकती
दर्द के दास्ताँ से
याद भुलाई जा नहीं सकती
बहुत चाहा सुनाना
दास्ताने दर्दे दिल महफ़िल में
मगर दिल पर गया है
आज बेतहासा मुश्किल में
जो एहसास दिल ने किया
जुबाँ बयाँ कर नहीं सका
जो बयाँ कर सकता
उसे एहसास ही नहीं हुआ
दिया है जिसने जानो जिस्म
हँस कर इस ज़माने को
पीया गम जिन्दगी भर ही
ज़माने को हँसाने को
कहानी प्यार की उसकी
आसानी से भुलाई जा नहीं सकती
कलेजा चीर कर भी रख दूँ
तो भी जख्मे जिगर
दिखाई जा नहीं सकती
प्यार ने उठाई है वो मुसीबत
जो बिसराई जा नहीं सकती
दे मृदु प्यार का आश्रय
थकी हारी जवानी को
बनाया गीत का नगमा
हारती हर कहानी को
कहानी त्याग की तेरी भी
झुठाई जा नहीं सकती
हुआ पुरुषार्थ बुढा तो
बनी उसका सहारा तुम
न कर पाओगी बुरे दिनों में
मुझसे कभी किनारा तुम
ज़माने में मिसाल तेरी
भुलाई जा नहीं सकती
वही ममता मयी नारी
अनूठे प्रेम की प्रतिमा
दहकते नरक को
जन्नत बनाने की सहज गरिमा
उन एहसानों की दौलत
कभी भी लुटाई जा नहीं सकती
तूने मेरे सब्र का
इंतकाल कर दिया है
पर मैंने अपने जीवन को
खुद ही नरक बना दिया है
फिर भी तेरा असीम प्यार
दिल से मिटाई जा नहीं सकती
समझ में आता नहीं
तेरे उपकारों का बदला
कैसे चुकाना है
तेरे हर चोट को
दिल में संजो कर रखना है
सुधा को धार तो
विष की पिलाई जा नहीं सकती
अगर मैं ही नहीं तेरा सम्मान कर पाए
अगर जो कुछ बलिदान न कर पाए
बिना इसके प्यार के
अमर बनाई जा नहीं सकती !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 22-06-1982
चित्र गूगल के सौजन्य से