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कुछ न भाता कुछ न सुहाता
ह्रदय पर निराशा छाया रहता
दर - दर मन भटकता रहता
गम का प्याला भरता रहता
मज़बूरी का बोझ है बढ़ता
आशा का दीप है बुझता
जिन्दगी दूर होती सी लगती
मौत करीब आ रही लगता
मैं जग से दूर होता जा रहा
जग मुझसे दूर
दिन जा रहा है ढ़लता
शाम गहराती जा रही
चाँद जा रहा है छिपता
बादल फैलती जा रही
सभी हँसते हैं मैं रहा रोता
सोना भी न सुहाता
इच्छा यही करता रहता
चार आँखें कर लूँ
मोहब्बत कर मुख तुम्हारी चूम लूँ
तड़प - तड़प कर रहता हूँ
किसी से कुछ न कहता हूँ
सिर्फ तुम्हे ही अर्ज अपना हूँ सुनाता !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 29-01-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
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