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भगवति रूचि तुअ कामचार नित जगतजोति जगमाया।
सकल असंभव तुअ बस संभव करिय अहोनिसि दाया।।
रविमण्डल बिच कालकोश पर त्रिकोण रेख अति राजे।
ता बिच रति मनसिज रतिविपरित करत सुख साजे।।
ता ऊपर पदयुगल कमल लस उदित भानु दुति शोभे।
उरज विशाल माल रिपु शिर युत फणि उपवीत सुशोभे।।
खरग दहिनकर वाम अपन सिर अति विकराल विराजे।
फूजल चिकुर दशन कटकट कर लहलह रसन सुधाजे।।
निजगण रुधिर धार बह ऊपर तीनि बलित अति धीरे।
दुइ दिश योगिनि दुइ दुइ पीवति एक बपन मुख गीरे।।
आदिनाथ पर कृपायुक्त भय सतत करिय कल्याने।
सुत सम्पति सुख मङ्गल मुद नित चारु फल कम दाने।।
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