शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

635 . अनकही व्यथा !


                                      ६३५ 
                              अनकही व्यथा !
भाषा की समस्या हो सकती है , विषय से विषयांतर हो सकता है , मत से मतान्तर हो सकता है , तथापि आप एक बार मेरे भावों को आत्मसात करने का प्रयास करें , अन्य दोषों को नजरअंदाज करें। 
मैं बिहार के एक छोटे से शहर समस्तीपुर में पहली बार पदस्थापित हुआ। इस कंपनी की स्थापना १९५४ ई में भारत सरकार की प्रथम जीवन रक्षक दवा कम्पनी के रूप में हुई थी। प्रथम बार २४ - ०९ - १९८१ में TMR के रूप में बाजार से परिचय करवाया था। यह सेवा १५ - ०७ - १९८३ तक जारी रही। फिर ०६ - १० - १९८७ में पुनः सेवा शुरू कर पाया। 
देश अनेक झंझावातों के दौर से गुजर रहा है।  ब्रिटिश सरकार के स्वार्थपूर्ण पेटेंट १९११ को बदलने में हमें आजादी के बाद २३ वर्ष लगे और १९७० में हमारा पेटेंट एक्ट बना और जहाँ आजादी के बाद ६५ -/- हिस्सेदारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की थी वहीँ १९८५ तक हम ७० -/- के हिस्सेदार हो गए और उत्पादन से लेकर तकनिकी तक में आत्मनिर्भर हो गए , परन्तु इस प्रक्रिया को उलटने का कार्य विदेशी दबाब एवं धन के बल पर देश की अस्मिता को वर्तमान प्रधानमन्त्री ने गिरवी रख दिया है। जिसकी प्रक्रिया पूर्व के प्रधानमंत्री के कार्य काल में ही प्रारम्भ हो गयी थी।  और हमारी खुशहाली की प्रक्रिया ही उलट गयी। हमारा देश जो विश्व में सबसे अधिक बेरोजगारी का दंश झेल रहा था उसमे लाखों रोजगारों को करोड़ों रुपये खर्च कर बेरोजगार बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। 
साथियों प्रारम्भ में एच ए  एल में मात्र १३ एम् आर के द्वारा अस्पतालों में कार्य प्रारम्भ किया गया जो १९७९ के शुरू तक चलता रहा और १९७९ - १९८० में अस्पताल और ट्रेड सेक्टर में ६० एम् आर के द्वारा कार्य प्रारम्भ हुआ जो मुख्य रूप से इन एस ए थी वह भी जेनेरिक रूप में। उस समय भी एम् आर को कहा जाता था कि ट्रेड पर ध्यान दो और दवा अस्पताल का उपलब्ध रखा जाता था। मुख्य रूप से सैम्पल भी NSA ही होता था यह भी जेनेरिक रूप में और शार्ट एक्सपाइरी।  अपर्याप्त एवम अनियमित सैम्पल देकर TMR को कहा जाता था टारगेट पूरा करने के लिए। विजुअल ऐड का दवा की उपलभ्दता से कोई सरोकार नहीं होता था। परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में दवाइयां एक्सपायर हो जाती थी और खामियाजा एम् आर को नौकरी गँवा कर देनी पड़ती थी। लालफीताशाही चरम पे थी। 
दवाओं के मामले में बदनाम किये  गए  सार्वजनिक क्षेत्र के दो महँ योगदान को बहलाया नहीं जा सकता है  , पहला इसने दूसरे दवाओं की कीमतों को आशर्चजनक रूप से घटाया और दूसरा   में फैक्ट्री स्थापित करने पर मजबूर किया। 
क्या यह कहना मात्र एक आरोप होगा की हमारे देह के नेता और अफसर भ्रष्ट हैं , करोड़ों अरबों का घोटाला करने वाली सरकार का प्रधानमंत्री और पूरा कैबिनेट हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट का चक्कर लगा रही है , कुछ को सजा  है और कुछ  है। ऐसे  किसी सार्वजानिक कंपनी की बागडोर किसी के हाथ  हैं तो उनके स्वार्थ स्पष्ट होते हैं। अपने चापलूसों को उसमे भरते हैं और ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हैं की वह  कंगाल हो जाये और वह सार्वजानिक संपत्ति उनके भाई भतीजे खरीद ले।  
क्रमशः 

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