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श्रीदुर्गा
जय जय महिष विनाशिनि भगवति सिंहगमनि जगदम्बे।
त्रिभुवनतारिणि विपदनिवारिणि सकल भुवन अवलम्बे।।
त्रिदश तपोधन दनुज मनुज गण चिकुर निकल अभिरामे।
तुअ पद चिन्तन विमुख सतत मन किदहु होएत परिणामे।।
हमर दुरित मति जानि सकल गति करिअ न अतिशय रोषे।
तनय रहित मति करय अनत गति कहिअ ककर थिक दोषे।।
तुअ गुण निगम अगम हरिहर विधि कहि न सकथि अनुपामे।
अनेक जनम तप करथि जतन दय तुअ पद दरशन कामे।।
क्षमिय हमर अपराध कृपामयि करिअ अभय वर दाने।
गिरिनन्दिनी पद पंकज मधुकर हर्षनाथ कवि भाने।।
( तत्रैव )
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