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जय जगजननी जय जगजननी देहु सुमति मृगपति गमनी।
सरसिरुहासन विपदविनाशन कारिणि मधुकैटभदमनी।।
दिति सुत रञ्जन सुरगणभन्जन महिष महासुर बलदलनी।
त्रिभुवनतारिणि महिषविदारिणि धूसर नयन भसम करनी।।
चण्ड मुण्ड सिर खण्डनकारिणि उन्मातरक्तबीज शमनी।
अतिबल शुम्भ निशुम्भ विनाशिनि निजजनसकल विपद हरनी।।
तुअ गुण निगम अगम चतुरानन कहि न सकत कत सहस्रफणी।
अमर निशाचर दनुज मनुज शिर चिकुर कलित जित रकतमनी।।
तुअ पद युगल सरोरुह मधुकर हर्षनाथ कवि सरस भनी।।
( माधवानन्द नाटक )
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