51.
बिखरे गगन में
बिखरे अरमान
तारों के झुरमुट में
अपना सिसकता चाँद
ध्रुव तारे सा टिमटिमाता
फीका - फीका नीला आसमान
जीवन की आशा
अमराई की छाओं में
जीवन धारा में
उजरा अपना आशियाँ
पत्थर पर
रस्सी रगरने की तरह
धुप छाओं के रेत में
सिसकते अरमानो के आंसू
सिसकते अरमानो के आंसू
धुप के खिलने तक
सजनी से मिलने को
नेह बरसा रहे
दो बादल सखियाँ
पल - पल को वो
रिसते रहे
ख्यालों को
तितर - बितर कर जाते
चाहत के हर कण
मरुभूमि में बिखर जाते
कण - कण को समेटते हुए
' सवेरा ' की हर शाम
कट रही है सांय - सांय
जुट - जुट कर
दूर होते मंजिल को
देख - देख कर
दिल का हर टुकड़ा पूछता है
दिल का हर टुकड़ा पूछता है
कहाँ जांय - कहाँ जांय ?
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९- ०१- १९८४ . लहेरियासराय
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९- ०१- १९८४ . लहेरियासराय
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