२७७.
तुम्हारी वो दिल्लगी थी
मेरे दिल को लगी
तेरे लिए वो खेल था
मेरे तो जान पे आ बनी
तुझे शायद न पता था
पर मैंने तो बता दिया था
मैं बड़ा सुकोमल कचा घड़ा हूँ
जानकर ही तूं
इस काबिल बनी
मुझे यूँ ठोकर मारा
मैं न घर का रहा न घाट का
तूं तो फिर भी किसी घर की हुई
मैं हर बार किसी घाट पे बिकता रहा !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४
३ - १८ pm कोलकाता
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