२८४.
मोहब्बत की तारीख को भूलता नहीं दीवाना !
आग लगाने से भला कब चुकता है जमाना !!
महबूबा बनी शाकी तो शराब ऐसी पी !
होश जब आया तो गम न पाया पी !!
हाथ में डिग्री थी घर में बीबी थी !
जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं नसीब इतनी खोटी थी !!
दुत्कार और फटकार अल्ला से मिला है प्यार में !
गरीब को कोई गिला नहीं , ना ही जीत में ना ही हार में !
कांटे बिछे हों राहों में , आंसू बहे जीवन भर !
तुम भी कांटे चुभोते रहो उफ़ न करेंगे जन्म भर !!
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४
१२ - ०७ pm
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