२८७.
पल में अतिशय उल्लास
भर देती क्षण में संत्रास
यही है जीवन का आभास
दंभ व्यर्थ मनुष्य को अपने पौरुष पर
काल का चक्का हाथ में जिसके वो बैठा है नभ पर
अक्ल तेरी जितनी भी भली
बुद्धि तेरी जितनी भी बड़ी
अनायास ही क्यों क्षणिक यह तेरा अहंकार
काल के सामने तूं है बिलकुल लाचार !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २१ - ०५ - १९८४
१२ - ५७ am कोलकाता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें