२७८.
फूंक - फूंक कर
संभल - संभल कर रखे पग
सूखे पत्तों की चरमराहट
गुम हो गयी
ऐसी आयी पाँव की आहट
जो मेरा था
कहते हैं सब
वो एक सपना था
आयी थी
वो मर्मस्पर्शी आवाजें गूंज - गूंज
दिल का हर कोना
गया था झूम झूम
सब कहते रहे
दूर रहो
है वो एक सुन्दर छलना
मैं भूल गया
उसमे इतना डूब गया
याद आयी
खुद की तब
ऑंखें खोल देखा जब
आंगन अपना सुना
वो निर्मोही
तूं क्यों आयी
मन मंदिर में मेरे
बन सुन्दर ऐसी ललना
तेरे बाग में कोई न कोई
हर पल रहा
चाहे हो वो गुलाब या गेंदा
पर सब कुछ रह कर भी
मैं तो रह गया सुना सुना !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४
९ - २२ pm कोलकाता
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