४२८ कुछ ख्यालात बुरे कुछ हालात बुरे कुछ ऑंखें बुरी कुछ निगाहें बुरी कुछ दूरियाँ बुरी कुछ नजदीकियां बुरी कभी वफ़ा बुरी कभी जफ़ा बुरी कभी दिन का चैन बुरा कभी रातों की नींद बुरी किसी के लिए हम बुरे मेरे लिए तुम बुरे कुछ हकीकत बुरे कुछ अफ़साने बुरे दिल के आईने में सूरत अपनी सबसे बुरी ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ११ - ०८ - १९८६
४२७ वे करते मुझसे प्रेम फुर्सत के क्षणों में वे करते मुझको याद पतझर के मौसम में मिलते हैं वो मुझसे समस्याओं के तूफान लिए बिछुड़ते हैं वो मुझसे सावन की अँधेरी रात लिए वो कहते हैं आई लव यू मैं कहता हूँ लबरा है तूँ ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०७ - ०८ - १९८६
४२६ बहुत सारे शब्द अर्थहीन हो गए हैं कुछ नष्ट कुछ भ्रष्ट हो गए हैं कुछ शब्दों को तुम खा लो कुछ शब्दों को तुम गाड़ दो कुछ को अजायब घर पहुंचा दो कुछ को गूँथ गले में टाँग लो कुछ दीवारों पे चिपका दो कुछ को ' मम्मी ' बनाकर रख लो इन शब्दों को खुला मत छोडो बड़े ही खतरनाक हैं ये शब्द इन्हे भाषा के दीवारों में मत बांधो मत वक्त दो इन शब्दों को यूँ न तुम इन्हे खुला छोडो वर्ना दोष न फिर मुझको देना एक और वियतनाम और हिरोशिमा फिर बना देना दोष है किसे किसका है दोष दोषी कौन दोष कहाँ - कहाँ है दोषी का फिर कौन है दोषी दोषी दोष का फिर क्यों न हो दोष दोष है दोषी दोष है उसका दोष के दोषी को क्यों दोष न देगा दोष है जिसका क्यों नं कहेगा उसका दोष के दोषी को तुम दोष न दोगे खुद बन दोषी निर्दोषों को दंड दोगे यह कैसा दोष निवारण है तेरा दोष उन्मूलन शब्द अकारण है तेरा दोष के दोषी को तुम फिर दण्ड न दे पाओगे खुद अपने ही खून को गलियों में बहाओगे ये तेरे विकाश की है पहचान या है तेरे अधोगति की निशान ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०५ - १९८५ ०८ - ३० pm
४२५ कलम अब रूठ सी जाती है कागज तक इंक आते ही सूख सी जाती है जज्बात के ओठों तक आते ही शब्दों के अर्थ खो से जाते हैं आकाश का पानी धरती तक आने से पहले ही घुट सा जाता है तूफां में किस्ती किनारे तक आने से पहले ही टूट सा जाता है रिश्तों का बंधन प्यार में बंधने से पहले ही बिखर सा जाता है ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४२४ बाढ़ एक दृश्य अनेक मेरे शहर में भी संकट बाढ़ का है आया सारे पिछले रेकार्ड को तोड़ आगे को है बढ़ गया मजबूत बाँध के सटे एक किराये का मकान है मेरा प्रसाशन व्यस्त है कामो में भोज के समय कोमहर रोपने में समाधानहीन आश्वासनों से परिपूर्ण पेट्रोलिंग गाड़ी कलेक्टर की दूर से ही प्रकाश उसकी टीम टिमाती नजर है आती जन समुदाय बांधों पे आ मेले का है रूप दे रहा संकट में भी भीड़ देख खोमचे वाला ठेले वाला भीड़ है बढ़ा रहा भीड़ है बहुत पर है कौन जो सहायता के लिए ऐसा भी पुकार सके फलां भैया फलां चाचा इस संकट में मेरी मदद करो सुनकर भी कौन भला आ पायेगा आगे बढ़ने पर ताड़ी की घूंट दे रहे हैं लोग मस्त हो मशगूल हैं खुद में ये लोग सामने देखता हूँ देखने से ज्यादा बस सुन पाता हूँ पांच रुपये पर जिस्म की बात हो रही है बांध टूटने का खतरा कुछ बढ़ ही गया है यह नहीं है या है मानसिकता किसका किनारा कितना मजबूत है इस पार के लोग लाठी फरसा और भाला लिए हाथ में घूम रहे हैं उस पार भी है जमकर तैयारी जीपों कारों में लोग निरिक्षण हैं करते गोला बारूद की भी व्यवस्था उधर है भरपूर बांध उधर है जो कमजोर बीच की धारा बाँट रही है दोनों छोड़ों की मानसिकता झूठा हल्ला पे भी लोग - लोग को मारने पर हैं पुरे तैयार पता नहीं ये बूढी गण्डकी धार किसको किससे है बाँट रही और ना जाने किसको किससे है यह जोड़ रही जन संपर्क भी जब और न रह सका चुप जीप ले माइक पर उच्च स्वर से वो बोल पड़ा नागरिक बन्धुवों एक है आवश्यक सूचना कृपया इस पर ध्यान दो नदी ने चौरासी की सीमा को कर लिया है पार मुजफ्फरपुर में पानी है स्थिर यहाँ पानी बढ़ रहा है कृपया आप लोग शहर छोड़ने को हो जाओ तैयार माँ गण्डकी ने अपनी भूख मिटा ली बेगमपुर को बहा कर अपना जी बहला ली रात अँधेरी थी समय एक बजा था जब मुंह अपना खोली थी मेरे कानो में चीखें तरह - तरह की तड़पती और मौत की पशु मवेशी इंसानों की आकाश में एक हेलीकॉप्टर कातर गिद्ध की दृष्टि एक बेबस असहाय अमर्यादित लहरें भला सीमाएं न तोड़ें ? किंकर्तव्यविमूढ़ मेरी बेबसी बस ईश्वर से एक प्रार्थना !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०१ - ०९ - १९८६ / ०२ - ०९ - १९८६ ११ - ३५ pm
४२३ कथा - व्यथा इस जीवन का सपनों का आदर्शों का कर्मों का भाग्यों का राही अनजान धर्मों का सुख छिपा था कमल सा कहीं कीचड़ में बहुत खोजा उसको इसमें उसमे तुममें पर मिला मुझको वो मुझ ही में ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४२२ मैं जानता हूँ मेरा ' काम ' आजकल करता है मुझे परेशान खुद अपने ऊपर हूँ बड़ा हैरान समझ नहीं आता कैसे करूँ अपना कल्याण ऐ माँ मुझे अपने आँचल में छुपा ले इस ' काम ' से बचा ले तेरे सिवा और मेरा कोई नहीं मैं हूँ ' काम ' का मारा ये मुझे हर पल है सताता ' माँ ' मुझे इससे दिला छुटकारा ' काम ' को कर भस्म करो मुझ पर माँ तुम रहम बस इतनी सी है मेरी प्रार्थना ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४२१ क्षागर का बलिदान करने को उसका त्राण विधि व्यवहार मैंने न जाना बात बस एक ही माना धरा ध्यान माँ काली का किया जप उसके नाम का बीच में बस भाव था उधर क्षागर को मोक्ष था ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४२० तुम्हे क्या पता तूने क्या किया किसी को मौत दी किसी का दिल लिया बेवफाई का झंडा सारे जहाँ में फहराया बड़ी हैरत है तेरे वजूद पे मालूम नहीं उतरा कैसे तेरे आँखों का पानी पानी के बदले आँखों में देखा हैरत का अंदाज ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४१९ परीक्षा में पर इक्षा होती है क्या ये जाना था मैं तब प्रतिष्ठा के परीक्षा से होना पड़ा था दो चार जब सर हिलाना अपराध था नीचे झुकना गुनाह था ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४१५ मेरी कविताओं में मेरा अपनापन है जो मैं हूँ वो मेरी कवितायेँ हैं कविता वो हैं जो मैं हूँ मैं ही हूँ वो मेरी कविता दुर्गम - दुर्गान्त अगम - सुखांत क्षत - विक्षत आहत ह्रदय तक आलाप - प्रलाप अविकसित - अर्धखिली सुवासित - पुष्पित मैं जो किसी से न बोला वह भी तुझ पे खोला वो मेरे अन्तरंग मेरे दुखों को जितना तूँ जानेगा दूसरा भला इसको कैसे समझ पायेगा तूँ बन मेरी राजदार चलती रही साथ - साथ कुछ भी तो तुझ से न छुपा पाया मैंने तूँ मेरी जिंदगी का आईना है जब जैसा अक्श बना तूने मुझे दिखलाया ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४१४ जिंदगी तो बस अब गुजर सी रही है कर्जों का जुआ कंधों पे लाद कर्म भूमि में मात्र एक बैल की तरह जुता जा रहा हूँ अनायास अनमनस्क सा ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४१३ तेरी कालिमाओं को सीने में दफ़न कर लिया है मैंने खुद को बेदाग रख सरेआम मुझको बदनाम कर रखा है तूने देकर उजाला तुझको अँधेरे का टीस मिला है मुझको ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४११ धन्य युवक देश के तूँ धन्य है तुझको मेरा आज शत शत नमन है कर प्रयत्न अनेकों जब डिग्री मिली तुझको थका हारा शेर तूँ तब दिखा मुझको समय से छः आठ वर्ष पूर्व ही पिता की हुई रिटायरगी बहन की शादी का बोझ भी जब तेरे कंधों पे आ पड़ा ही तूँ धैर्य की प्रतिमा बन बेरोजगारी में यूँ चुप चाप ही सब कुछ सहता रहा धन्य युवक देश के तूँ धन्य है तुझको मेरा शत - शत नमन है ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
४१० ' आवश्यकता ' है का कॉलम देख मन अब प्रफुल्लित होता नहीं चाहकर आवेदन पत्र भेजना भी पैसा जेब में रहता नहीं यह बात भी आत्मा मन को कहती रहती कोई मंत्री का पत्र है पास तुम्हारे नहीं क्योंकर कष्ट फिर तब तुम देते हो मुझको चरण पखारने का गंगाजल भी जब प्रदुषण से खाली नहीं भरने को जेब चेयरमैनों के बेचने को घर बार भी है तुम्हारे पास नहीं ! सुधीर कुमार ' सवेरा '