रविवार, 28 जून 2015
511 . भीड़ तो है पर बाजार नहीं
५११
भीड़ तो है पर बाजार नहीं
खरीदार तो है पर दुकानदार नहीं
सेठ तो है पर व्यवसाय नहीं
सरकार तो है पर शासन नहीं
राजनीति तो है पर नेता नहीं
भ्रान्ति तो है पर क्रांति नहीं
सत्ता तो है पर व्यवस्था नहीं
शहर तो है पर शहरी नहीं
तमाशा तो है पर तमाशाई नहीं
रास्ता रोको अभियान है समाधान नहीं
ईमानदार एसपी का ट्रांसफर हो नहीं
इसलिए आज शहर बाजार खुले नहीं
स्वतंत्र देश में हो ऐसा अभियान नहीं
तरीका बदलना होगा हम अब गुलाम नहीं !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
भीड़ तो है पर बाजार नहीं
खरीदार तो है पर दुकानदार नहीं
सेठ तो है पर व्यवसाय नहीं
सरकार तो है पर शासन नहीं
राजनीति तो है पर नेता नहीं
भ्रान्ति तो है पर क्रांति नहीं
सत्ता तो है पर व्यवस्था नहीं
शहर तो है पर शहरी नहीं
तमाशा तो है पर तमाशाई नहीं
रास्ता रोको अभियान है समाधान नहीं
ईमानदार एसपी का ट्रांसफर हो नहीं
इसलिए आज शहर बाजार खुले नहीं
स्वतंत्र देश में हो ऐसा अभियान नहीं
तरीका बदलना होगा हम अब गुलाम नहीं !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
शुक्रवार, 26 जून 2015
509 . जीव तूँ अनादि है
( हमारा परिवार )
५०९
जीव तूँ अनादि है
भूलता क्यों माँ को
मोह मद में डूब कर
भूल गया खुद को
जो न था अपना
उसको तूँ अपना लिया
इन्द्रिय सुख में डूबा
खुद को बिसरा दिया
छोड़ इन बंधनों को
भज तूँ माँ को
जीव तूँ अनादि है
भूलता क्यों माँ को
अपना कर माँ मैंने
मिथ्या ज्ञान आचरण को
तीन लोक दिया खो
उपदेश थे जो हितकारी
पोंछ फेंका उनको पिछाड़ी
जीव तूँ अनादि है
भूलता क्यों माँ को !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
५०९
जीव तूँ अनादि है
भूलता क्यों माँ को
मोह मद में डूब कर
भूल गया खुद को
जो न था अपना
उसको तूँ अपना लिया
इन्द्रिय सुख में डूबा
खुद को बिसरा दिया
छोड़ इन बंधनों को
भज तूँ माँ को
जीव तूँ अनादि है
भूलता क्यों माँ को
अपना कर माँ मैंने
मिथ्या ज्ञान आचरण को
तीन लोक दिया खो
उपदेश थे जो हितकारी
पोंछ फेंका उनको पिछाड़ी
जीव तूँ अनादि है
भूलता क्यों माँ को !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
508 . छोड़ दे अपनी बुद्धि थोथी
( पुत्र - उज्जवल सुमित )
५०८
छोड़ दे अपनी बुद्धि थोथी
करो न बकवास तुम थोथी
इस तन से मोह छोड़ दे
खुद को खुद से जोड़ दे
इस झूठी ममता से ही
बंधी रही कर्म की डोरी
यह जड़ तूँ है चेतन
बस समझ तुं इसे निकेतन
छोड़ इसे हमें जाना है
खुद का स्वरुप हमें अपनाना है
सम्यक दर्शन ज्ञान विवेक को लेकर
तन की झूठी ममता भगाना है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
५०८
छोड़ दे अपनी बुद्धि थोथी
करो न बकवास तुम थोथी
इस तन से मोह छोड़ दे
खुद को खुद से जोड़ दे
इस झूठी ममता से ही
बंधी रही कर्म की डोरी
यह जड़ तूँ है चेतन
बस समझ तुं इसे निकेतन
छोड़ इसे हमें जाना है
खुद का स्वरुप हमें अपनाना है
सम्यक दर्शन ज्ञान विवेक को लेकर
तन की झूठी ममता भगाना है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
मंगलवार, 23 जून 2015
507 . मान लो यह सीख मेरी
५०७
मान लो यह सीख मेरी
धरो ध्यान माँ की थोड़ी
फिरो मत भोगों की ओर
कर इनसे शत्रु सा वैर
विषयों को साँप तुम जानो
कभी न इनसे प्रीति तुम ठानो
भोगों से जो हो गयी भेंट
हो गयी अधोगति समझो तुम ठेंठ
लो इन सबसे मुख मोड़
मुड़ो माँ चरणो की ओर
अन्यथा कहीं न होगी तेरी ठौड़
' सवेरा ' की कथनी पे करो गौर !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
मान लो यह सीख मेरी
धरो ध्यान माँ की थोड़ी
फिरो मत भोगों की ओर
कर इनसे शत्रु सा वैर
विषयों को साँप तुम जानो
कभी न इनसे प्रीति तुम ठानो
भोगों से जो हो गयी भेंट
हो गयी अधोगति समझो तुम ठेंठ
लो इन सबसे मुख मोड़
मुड़ो माँ चरणो की ओर
अन्यथा कहीं न होगी तेरी ठौड़
' सवेरा ' की कथनी पे करो गौर !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
506 . रे मन तूँ क्यों इतना भागे ?
५०६
रे मन तूँ क्यों इतना भागे ?
विषयों में क्यों तूँ इतना लागे ?
तेरे वश हो कब से भटका
निज स्वरुप कभी देख न सका
पराधीन हो तेरे दर - दर भटका
दुर्गति विपत्ति खूब मैंने है भोगा
फंस मैं अनेक विषयों कारणों में
इन्द्रिय रसों को जी भर चखने में
खुद को खुद से दूर भगाया
नमन विषय वश पतंगा सा जलाया
सब मानो को तजकर मैं माँ
तेरे चरणों में हूँ अब ध्यान लगाया !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
रे मन तूँ क्यों इतना भागे ?
विषयों में क्यों तूँ इतना लागे ?
तेरे वश हो कब से भटका
निज स्वरुप कभी देख न सका
पराधीन हो तेरे दर - दर भटका
दुर्गति विपत्ति खूब मैंने है भोगा
फंस मैं अनेक विषयों कारणों में
इन्द्रिय रसों को जी भर चखने में
खुद को खुद से दूर भगाया
नमन विषय वश पतंगा सा जलाया
सब मानो को तजकर मैं माँ
तेरे चरणों में हूँ अब ध्यान लगाया !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
सोमवार, 22 जून 2015
शुक्रवार, 19 जून 2015
मंगलवार, 16 जून 2015
501 . अहंकार !
५०१
अहंकार !
बुद्धि तत्व का एक विकार
एक भाव जो सर्वथा है त्याज्य
खोलता है जो अवनति का द्वार
एक बोध जिसे जाने अंजाने हम पुष्ट करते हैं
जिसे करोड़ों जन्म पहले ही हमें छोड़ना था
जाने या अनजाने जिसे अब तक ढोते रहे
हमें मूल पथ से जो है भटकाता
बार - बार जो हमें नीचे ढकेलता
जो खुद को कभी जानने नहीं देता
कर देता हमें अपने ही आत्मा से दूर
अहंकार हमें माँ से दूर ले जाता है
ब्रह्माकार वृति ही सर्वोत्तम विचार है
माँ के चिंतन में लीन होने से हमें
हमारा अहं भाव ही रोकता है
सभी समस्याओं का मूल है अहंकार
जीव और परमात्मा के बीच का अवरोध है अहंकार
जिनका जीवन आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर नहीं है
जीवन उनका उलझा है अहंकार के जाल में
मैं और मेरा यही है इनका स्वाध्याय
कुछ करने से पहले ही हो जाते वे आश्वस्त
मेरा और किनका हित होगा इससे
ऐसे लोग अपने अहंकार से परे
समस्त संसार की उपेक्षा कर देते
वास्तविक जगत मैं और मेरा के
दायरे से परे हैं
आध्यात्मिक जगत ही सच्चा संसार है
अनंत का फैलाव ही
आत्मिक जगत का स्वरुप है
आध्यात्मिकता की कुंजी है
अपने आप को सीमित अहं सीमा से अलग कर
माँ में प्रतिस्थापित करने का अभ्यास
ज्ञान एवं भक्ति के अभ्यास से ही
ऐसा संभव हो सकता है
करत करत अभ्यास ते जड़ीमत होत सुजान
रसड़ी आवत जात ते सिल पर परत निशान
अभ्यास है करना
अपने और दूसरों में वर्तमान
एक ही माँ स्वरुप का दर्शन करना
इस अभ्यास से अन्तरात्मा स्वयं निर्देशित कर
अहंकार रूपी वृक्ष को समूल
नष्ट कर देता है
अहंकार को अपनी अंतिम
वास्तविकता समझ लेना
हमारी पहली भूल है
अहंकार परिवर्तनशील है
उसकी तुष्टि का हर उपाय
भ्रम मूलक है
हमारा आज का अहंकार
जिस सिद्धांत को मानने पर
बल दे रहा है
कल वह बदल भी सकता है
अर्थात हम मूलतः अहम नहीं हैं
अहंकार वह बन्दर है
जिसे हमेशा प्रसन्न नहीं रखा जा सकता है
अहंकार को सर्वोपरि समझना
मानसिक अशांति का पहला कारण
अहंकार से प्रेरित कर्मों से
जन्म मरण का छूट नहीं सकता
अहंकार रूपी व्याधि से हम
सत्संग , जप तथा पाठ से ही उबर सकते हैं
अपने और परमात्मा के बीच की दुरी
गर मिटानी है तो
अहंकार को मिटाना होगा
हमें समझना होगा
जो हम हैं वही सभी
सबों का नियंता एक माँ
अहंकार रूपी दर्पण में हमें
अपने आप को देखना बंद करना है
ना तो यह शरीर मेरा है
ना ही सांसारिक कोई वस्तु हमारी है
हमें उपनिषदों के उद्घोषों के सहारे
ऊपर उठना होगा
तभी हम अहंकार रूपी आग से
ऊपरी धरातल से उठकर
माँ से संपर्क स्थापित कर सकेंगे
इस आस्था में विश्वास रख हम अपने
कर्म पथ पर अग्रसर होकर
प्रगति के शिखर को प्राप्त हो पुनः
विश्व मंच पे गुरु रूप में
अपने देश को प्रतिष्ठित कर सकेंगे !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
अहंकार !
बुद्धि तत्व का एक विकार
एक भाव जो सर्वथा है त्याज्य
खोलता है जो अवनति का द्वार
एक बोध जिसे जाने अंजाने हम पुष्ट करते हैं
जिसे करोड़ों जन्म पहले ही हमें छोड़ना था
जाने या अनजाने जिसे अब तक ढोते रहे
हमें मूल पथ से जो है भटकाता
बार - बार जो हमें नीचे ढकेलता
जो खुद को कभी जानने नहीं देता
कर देता हमें अपने ही आत्मा से दूर
अहंकार हमें माँ से दूर ले जाता है
ब्रह्माकार वृति ही सर्वोत्तम विचार है
माँ के चिंतन में लीन होने से हमें
हमारा अहं भाव ही रोकता है
सभी समस्याओं का मूल है अहंकार
जीव और परमात्मा के बीच का अवरोध है अहंकार
जिनका जीवन आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर नहीं है
जीवन उनका उलझा है अहंकार के जाल में
मैं और मेरा यही है इनका स्वाध्याय
कुछ करने से पहले ही हो जाते वे आश्वस्त
मेरा और किनका हित होगा इससे
ऐसे लोग अपने अहंकार से परे
समस्त संसार की उपेक्षा कर देते
वास्तविक जगत मैं और मेरा के
दायरे से परे हैं
आध्यात्मिक जगत ही सच्चा संसार है
अनंत का फैलाव ही
आत्मिक जगत का स्वरुप है
आध्यात्मिकता की कुंजी है
अपने आप को सीमित अहं सीमा से अलग कर
माँ में प्रतिस्थापित करने का अभ्यास
ज्ञान एवं भक्ति के अभ्यास से ही
ऐसा संभव हो सकता है
करत करत अभ्यास ते जड़ीमत होत सुजान
रसड़ी आवत जात ते सिल पर परत निशान
अभ्यास है करना
अपने और दूसरों में वर्तमान
एक ही माँ स्वरुप का दर्शन करना
इस अभ्यास से अन्तरात्मा स्वयं निर्देशित कर
अहंकार रूपी वृक्ष को समूल
नष्ट कर देता है
अहंकार को अपनी अंतिम
वास्तविकता समझ लेना
हमारी पहली भूल है
अहंकार परिवर्तनशील है
उसकी तुष्टि का हर उपाय
भ्रम मूलक है
हमारा आज का अहंकार
जिस सिद्धांत को मानने पर
बल दे रहा है
कल वह बदल भी सकता है
अर्थात हम मूलतः अहम नहीं हैं
अहंकार वह बन्दर है
जिसे हमेशा प्रसन्न नहीं रखा जा सकता है
अहंकार को सर्वोपरि समझना
मानसिक अशांति का पहला कारण
अहंकार से प्रेरित कर्मों से
जन्म मरण का छूट नहीं सकता
अहंकार रूपी व्याधि से हम
सत्संग , जप तथा पाठ से ही उबर सकते हैं
अपने और परमात्मा के बीच की दुरी
गर मिटानी है तो
अहंकार को मिटाना होगा
हमें समझना होगा
जो हम हैं वही सभी
सबों का नियंता एक माँ
अहंकार रूपी दर्पण में हमें
अपने आप को देखना बंद करना है
ना तो यह शरीर मेरा है
ना ही सांसारिक कोई वस्तु हमारी है
हमें उपनिषदों के उद्घोषों के सहारे
ऊपर उठना होगा
तभी हम अहंकार रूपी आग से
ऊपरी धरातल से उठकर
माँ से संपर्क स्थापित कर सकेंगे
इस आस्था में विश्वास रख हम अपने
कर्म पथ पर अग्रसर होकर
प्रगति के शिखर को प्राप्त हो पुनः
विश्व मंच पे गुरु रूप में
अपने देश को प्रतिष्ठित कर सकेंगे !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
सोमवार, 15 जून 2015
500 . चाहत ?
५००
चाहत ?
एक सुरुचिपूर्ण तत्व
चाहत , जीने का अनिवार्य तत्व
चाहत , बनने का प्रधान अंग
मंजिल पाने के लिए जरुरी
गिर कर उठ पड़ने के लिए आवश्यक
निराकार से अलग
हर साकार के लिए चाहिए चाहत
पर देखना है परखना है
चाहत का कौन सा पहलू हमें चाहिए
चाहत लूटने की नहीं लुटाने की
चाहत ठगाने की हो ठगने की नहीं
चाहत मिटने की हो मिटाने की नहीं
चाहत देने की हो लेने की नहीं
चाहत औरों के मंगल की हो
अमंगल की नहीं
चाहत प्रेम की हो घृणा की नहीं
चाहत अखंडता की हो
अलगाव की नहीं
चाहत साझे की हो बँटवारे की नहीं
चाहत मैत्री की हो शत्रुता की नहीं
चाहत भक्त बनने की हो भगवान नहीं
चाहत इंसान बनने की हो
धनवान , ज्ञानवान , बलवान नहीं
चाहत सम्पूर्णता की , संकीर्णता की नहीं
चाहत इष्ट की नहीं समष्टि की हो
इन चाहतो के लिए जो हो कुर्बानी
स्वीकार हमें सहर्ष करना चाहिए
चाहत गर लुटाने की होगी
कोई हमें लूटेगा नहीं
चाहत जानते हुए ठगाने की होगी
तो हमें कोई ठगेगा नहीं
चाहत मर मिटने की हो
तो कोई मिटा पायेगा नहीं
देने की चाहत में ही तो पाना है
एक समय की बात है
सुभाष चन्द्र बोस
वर्मा की एक सभा में
बोल रहे थे
मुझे सोना दीजिये
मुझे रक्त दीजिये
मैं सर्वस्व मांग रहा हूँ
बदले में क्या दे पाउँगा
इसका कोई आश्वासन नहीं
परन्तु नहीं
एक वृद्धा उठ खड़ी हुई
लाठी के सहारे
गले से निकाल सोने की जंजीर
उस भारत माँ के लाल को देते हुए बोली उठी
बेटा !
तूँ ऐसे कैसे बोल रहा है ?
तूँ धर्म दे रहा है
तूँ त्याग दे रहा है
तूँ परम गति दे रहा है
तूँ संभव है देश को स्वतंत्रता भी दे दे
पाना तो देने में ही है
बस चाहत का व्यवहार पहलु देखना है
मिलता है यहाँ सब कुछ
पर लेने का ढंग बदलना होगा
यहाँ देने वाले बहुत हैं
हमें लेना नहीं आता
हम देना चाहते हैं
पर देना नहीं आता
हमें सीखना है देना भी
हमें सीखना है लेना भी
चाहत अगर देने की होगी तो
लेने की चाहत से पहले ही
चाहत जो लेने की होगी
वो मिल जायेगा हमें बिन मांगे
मानव की हो पहली चाहत
जगत जननी से हो प्रेम भक्ति
प्रेम भक्ति होगी माँ से तभी
कर पाएंगे जब हम
माँ निर्मित कण - कण
हर अंश हर जीव से
निश्छल प्रेम भक्ति !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
चाहत ?
एक सुरुचिपूर्ण तत्व
चाहत , जीने का अनिवार्य तत्व
चाहत , बनने का प्रधान अंग
मंजिल पाने के लिए जरुरी
गिर कर उठ पड़ने के लिए आवश्यक
निराकार से अलग
हर साकार के लिए चाहिए चाहत
पर देखना है परखना है
चाहत का कौन सा पहलू हमें चाहिए
चाहत लूटने की नहीं लुटाने की
चाहत ठगाने की हो ठगने की नहीं
चाहत मिटने की हो मिटाने की नहीं
चाहत देने की हो लेने की नहीं
चाहत औरों के मंगल की हो
अमंगल की नहीं
चाहत प्रेम की हो घृणा की नहीं
चाहत अखंडता की हो
अलगाव की नहीं
चाहत साझे की हो बँटवारे की नहीं
चाहत मैत्री की हो शत्रुता की नहीं
चाहत भक्त बनने की हो भगवान नहीं
चाहत इंसान बनने की हो
धनवान , ज्ञानवान , बलवान नहीं
चाहत सम्पूर्णता की , संकीर्णता की नहीं
चाहत इष्ट की नहीं समष्टि की हो
इन चाहतो के लिए जो हो कुर्बानी
स्वीकार हमें सहर्ष करना चाहिए
चाहत गर लुटाने की होगी
कोई हमें लूटेगा नहीं
चाहत जानते हुए ठगाने की होगी
तो हमें कोई ठगेगा नहीं
चाहत मर मिटने की हो
तो कोई मिटा पायेगा नहीं
देने की चाहत में ही तो पाना है
एक समय की बात है
सुभाष चन्द्र बोस
वर्मा की एक सभा में
बोल रहे थे
मुझे सोना दीजिये
मुझे रक्त दीजिये
मैं सर्वस्व मांग रहा हूँ
बदले में क्या दे पाउँगा
इसका कोई आश्वासन नहीं
परन्तु नहीं
एक वृद्धा उठ खड़ी हुई
लाठी के सहारे
गले से निकाल सोने की जंजीर
उस भारत माँ के लाल को देते हुए बोली उठी
बेटा !
तूँ ऐसे कैसे बोल रहा है ?
तूँ धर्म दे रहा है
तूँ त्याग दे रहा है
तूँ परम गति दे रहा है
तूँ संभव है देश को स्वतंत्रता भी दे दे
पाना तो देने में ही है
बस चाहत का व्यवहार पहलु देखना है
मिलता है यहाँ सब कुछ
पर लेने का ढंग बदलना होगा
यहाँ देने वाले बहुत हैं
हमें लेना नहीं आता
हम देना चाहते हैं
पर देना नहीं आता
हमें सीखना है देना भी
हमें सीखना है लेना भी
चाहत अगर देने की होगी तो
लेने की चाहत से पहले ही
चाहत जो लेने की होगी
वो मिल जायेगा हमें बिन मांगे
मानव की हो पहली चाहत
जगत जननी से हो प्रेम भक्ति
प्रेम भक्ति होगी माँ से तभी
कर पाएंगे जब हम
माँ निर्मित कण - कण
हर अंश हर जीव से
निश्छल प्रेम भक्ति !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
शनिवार, 6 जून 2015
499 . गिरना नियम भी हो सकता है
४९९
गिरना नियम भी हो सकता है
मज़बूरी भी हो सकता है
चेतनता का प्रतीक भी
गिर कर रोना कायरता है
गिरना और अफ़सोस करना
समय की बर्बादी है
वर्षा हुई थी
दो बालक कीचड़ में
गिर पड़े थे फिसलकर
एक गिरा और उठा
दूसरे ने गिरकर
रोना शुरू कर दिया
पहले वाला उसपे हँसा
और चिढ़ाने लगा
सत्य ही तो है
गिर कर उठने वाला महान है
सच्चा आनंद और हँसते रहने का अधिकार
उसे ही तो है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
गिरना नियम भी हो सकता है
मज़बूरी भी हो सकता है
चेतनता का प्रतीक भी
गिर कर रोना कायरता है
गिरना और अफ़सोस करना
समय की बर्बादी है
वर्षा हुई थी
दो बालक कीचड़ में
गिर पड़े थे फिसलकर
एक गिरा और उठा
दूसरे ने गिरकर
रोना शुरू कर दिया
पहले वाला उसपे हँसा
और चिढ़ाने लगा
सत्य ही तो है
गिर कर उठने वाला महान है
सच्चा आनंद और हँसते रहने का अधिकार
उसे ही तो है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
गुरुवार, 4 जून 2015
498 . सवाल ?
४९८
सवाल ?
जो है एक
जिनके रूप अनेक
उत्पति जिनका अनादि
बुद्धि तत्त्व के साथ ही हुआ होगा प्रादुर्भाव
सृष्टि प्रारम्भ से जो चला आ रहा
पग - पग , पल - पल जो साथ रहा
हम छूटे हों
उसने साथ नहीं छोड़ा
हम अनित्य हैं
सवाल अनित्य हैं
तभी तो बार - बार सामने आ जाते
किसी न किसी मोड़ पे टकरा जाते
जब सवाल उठता है
कुछ तो जवाब मिलता ही है
पर हम ने शायद
सवालों को उठाना छोड़ दिया है
एक अहम सवाल ?
यह शरीर है किसका ?
माता - पिता का झगड़ा
यह है मेरा
मैंने इसे उत्पन्न किया
पत्नी भला हक़ कैसे अपना छोड़े
पुत्रों का तो कहना ही क्या
प्रशासन भी पीछे नहीं
गुरु का तो पूरा ही अधिकार है
पर हाय रे शरीर
कुत्ते गिद्ध कीड़े मकौड़े भी
तुझपे हैं अधिकार जताते
अग्नि का तो इसपे पूर्ण स्वामित्व है
रोग कहते यह मेरा घर है
फिर भी शायद हम
हिचकते नहीं यह कहने में
वह मेरा है
जवाब ढूँढना है
तथ्य खोजना है
देखना है
हमारा दावा कितना सच है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
सवाल ?
जो है एक
जिनके रूप अनेक
उत्पति जिनका अनादि
बुद्धि तत्त्व के साथ ही हुआ होगा प्रादुर्भाव
सृष्टि प्रारम्भ से जो चला आ रहा
पग - पग , पल - पल जो साथ रहा
हम छूटे हों
उसने साथ नहीं छोड़ा
हम अनित्य हैं
सवाल अनित्य हैं
तभी तो बार - बार सामने आ जाते
किसी न किसी मोड़ पे टकरा जाते
जब सवाल उठता है
कुछ तो जवाब मिलता ही है
पर हम ने शायद
सवालों को उठाना छोड़ दिया है
एक अहम सवाल ?
यह शरीर है किसका ?
माता - पिता का झगड़ा
यह है मेरा
मैंने इसे उत्पन्न किया
पत्नी भला हक़ कैसे अपना छोड़े
पुत्रों का तो कहना ही क्या
प्रशासन भी पीछे नहीं
गुरु का तो पूरा ही अधिकार है
पर हाय रे शरीर
कुत्ते गिद्ध कीड़े मकौड़े भी
तुझपे हैं अधिकार जताते
अग्नि का तो इसपे पूर्ण स्वामित्व है
रोग कहते यह मेरा घर है
फिर भी शायद हम
हिचकते नहीं यह कहने में
वह मेरा है
जवाब ढूँढना है
तथ्य खोजना है
देखना है
हमारा दावा कितना सच है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
बुधवार, 3 जून 2015
497 . हमारी दया
४९७
हमारी दया
हमारी सहानुभूति
किसको फायदा
होगा किसको नुकसान
है हमने कभी ऐसा सोचा
मात्र दया परोपकार की भावना से
सभी के कल्याण नहीं हुआ करते
पास न हो वैसे तो
पानी या कपूर
एक से में
कैसे रह पायेंगे
एक ही दवा
जो चमड़े पे घावों को ठीक करे
मुख में जाये तो जान ले
दया मात्र से
कुत्ते के घाव पे जो
ऐसी दवा लग जाए
वो प्रकृतिवश चाटेगा
दयावश हमें इसका ज्ञान
पूर्व हो नहीं पाता
उस जीव की तो
जान ही चली जाती
होना होगा सावधान
हमारे उपकार से कहीं
किसी का नुकसान न हो
इतनी योग्यता
इतनी समझदारी का
अपने में
करना होगा समावेश !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
हमारी दया
हमारी सहानुभूति
किसको फायदा
होगा किसको नुकसान
है हमने कभी ऐसा सोचा
मात्र दया परोपकार की भावना से
सभी के कल्याण नहीं हुआ करते
पास न हो वैसे तो
पानी या कपूर
एक से में
कैसे रह पायेंगे
एक ही दवा
जो चमड़े पे घावों को ठीक करे
मुख में जाये तो जान ले
दया मात्र से
कुत्ते के घाव पे जो
ऐसी दवा लग जाए
वो प्रकृतिवश चाटेगा
दयावश हमें इसका ज्ञान
पूर्व हो नहीं पाता
उस जीव की तो
जान ही चली जाती
होना होगा सावधान
हमारे उपकार से कहीं
किसी का नुकसान न हो
इतनी योग्यता
इतनी समझदारी का
अपने में
करना होगा समावेश !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
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