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चाहत ?
एक सुरुचिपूर्ण तत्व
चाहत , जीने का अनिवार्य तत्व
चाहत , बनने का प्रधान अंग
मंजिल पाने के लिए जरुरी
गिर कर उठ पड़ने के लिए आवश्यक
निराकार से अलग
हर साकार के लिए चाहिए चाहत
पर देखना है परखना है
चाहत का कौन सा पहलू हमें चाहिए
चाहत लूटने की नहीं लुटाने की
चाहत ठगाने की हो ठगने की नहीं
चाहत मिटने की हो मिटाने की नहीं
चाहत देने की हो लेने की नहीं
चाहत औरों के मंगल की हो
अमंगल की नहीं
चाहत प्रेम की हो घृणा की नहीं
चाहत अखंडता की हो
अलगाव की नहीं
चाहत साझे की हो बँटवारे की नहीं
चाहत मैत्री की हो शत्रुता की नहीं
चाहत भक्त बनने की हो भगवान नहीं
चाहत इंसान बनने की हो
धनवान , ज्ञानवान , बलवान नहीं
चाहत सम्पूर्णता की , संकीर्णता की नहीं
चाहत इष्ट की नहीं समष्टि की हो
इन चाहतो के लिए जो हो कुर्बानी
स्वीकार हमें सहर्ष करना चाहिए
चाहत गर लुटाने की होगी
कोई हमें लूटेगा नहीं
चाहत जानते हुए ठगाने की होगी
तो हमें कोई ठगेगा नहीं
चाहत मर मिटने की हो
तो कोई मिटा पायेगा नहीं
देने की चाहत में ही तो पाना है
एक समय की बात है
सुभाष चन्द्र बोस
वर्मा की एक सभा में
बोल रहे थे
मुझे सोना दीजिये
मुझे रक्त दीजिये
मैं सर्वस्व मांग रहा हूँ
बदले में क्या दे पाउँगा
इसका कोई आश्वासन नहीं
परन्तु नहीं
एक वृद्धा उठ खड़ी हुई
लाठी के सहारे
गले से निकाल सोने की जंजीर
उस भारत माँ के लाल को देते हुए बोली उठी
बेटा !
तूँ ऐसे कैसे बोल रहा है ?
तूँ धर्म दे रहा है
तूँ त्याग दे रहा है
तूँ परम गति दे रहा है
तूँ संभव है देश को स्वतंत्रता भी दे दे
पाना तो देने में ही है
बस चाहत का व्यवहार पहलु देखना है
मिलता है यहाँ सब कुछ
पर लेने का ढंग बदलना होगा
यहाँ देने वाले बहुत हैं
हमें लेना नहीं आता
हम देना चाहते हैं
पर देना नहीं आता
हमें सीखना है देना भी
हमें सीखना है लेना भी
चाहत अगर देने की होगी तो
लेने की चाहत से पहले ही
चाहत जो लेने की होगी
वो मिल जायेगा हमें बिन मांगे
मानव की हो पहली चाहत
जगत जननी से हो प्रेम भक्ति
प्रेम भक्ति होगी माँ से तभी
कर पाएंगे जब हम
माँ निर्मित कण - कण
हर अंश हर जीव से
निश्छल प्रेम भक्ति !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
चाहत ?
एक सुरुचिपूर्ण तत्व
चाहत , जीने का अनिवार्य तत्व
चाहत , बनने का प्रधान अंग
मंजिल पाने के लिए जरुरी
गिर कर उठ पड़ने के लिए आवश्यक
निराकार से अलग
हर साकार के लिए चाहिए चाहत
पर देखना है परखना है
चाहत का कौन सा पहलू हमें चाहिए
चाहत लूटने की नहीं लुटाने की
चाहत ठगाने की हो ठगने की नहीं
चाहत मिटने की हो मिटाने की नहीं
चाहत देने की हो लेने की नहीं
चाहत औरों के मंगल की हो
अमंगल की नहीं
चाहत प्रेम की हो घृणा की नहीं
चाहत अखंडता की हो
अलगाव की नहीं
चाहत साझे की हो बँटवारे की नहीं
चाहत मैत्री की हो शत्रुता की नहीं
चाहत भक्त बनने की हो भगवान नहीं
चाहत इंसान बनने की हो
धनवान , ज्ञानवान , बलवान नहीं
चाहत सम्पूर्णता की , संकीर्णता की नहीं
चाहत इष्ट की नहीं समष्टि की हो
इन चाहतो के लिए जो हो कुर्बानी
स्वीकार हमें सहर्ष करना चाहिए
चाहत गर लुटाने की होगी
कोई हमें लूटेगा नहीं
चाहत जानते हुए ठगाने की होगी
तो हमें कोई ठगेगा नहीं
चाहत मर मिटने की हो
तो कोई मिटा पायेगा नहीं
देने की चाहत में ही तो पाना है
एक समय की बात है
सुभाष चन्द्र बोस
वर्मा की एक सभा में
बोल रहे थे
मुझे सोना दीजिये
मुझे रक्त दीजिये
मैं सर्वस्व मांग रहा हूँ
बदले में क्या दे पाउँगा
इसका कोई आश्वासन नहीं
परन्तु नहीं
एक वृद्धा उठ खड़ी हुई
लाठी के सहारे
गले से निकाल सोने की जंजीर
उस भारत माँ के लाल को देते हुए बोली उठी
बेटा !
तूँ ऐसे कैसे बोल रहा है ?
तूँ धर्म दे रहा है
तूँ त्याग दे रहा है
तूँ परम गति दे रहा है
तूँ संभव है देश को स्वतंत्रता भी दे दे
पाना तो देने में ही है
बस चाहत का व्यवहार पहलु देखना है
मिलता है यहाँ सब कुछ
पर लेने का ढंग बदलना होगा
यहाँ देने वाले बहुत हैं
हमें लेना नहीं आता
हम देना चाहते हैं
पर देना नहीं आता
हमें सीखना है देना भी
हमें सीखना है लेना भी
चाहत अगर देने की होगी तो
लेने की चाहत से पहले ही
चाहत जो लेने की होगी
वो मिल जायेगा हमें बिन मांगे
मानव की हो पहली चाहत
जगत जननी से हो प्रेम भक्ति
प्रेम भक्ति होगी माँ से तभी
कर पाएंगे जब हम
माँ निर्मित कण - कण
हर अंश हर जीव से
निश्छल प्रेम भक्ति !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
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