३७९
यहाँ किसी से मुझको कोई गिला नहीं ,
मेरे कब्र पे भी गर तेरा सेहरा बने तो मुझे हर्ज नहीं !
खोदा है रास्ते में खंदक उन्होंने ,
आसमां पे जा बिठाया था जिनको हमने !
बड़ी फजीयत हुई इश्क के दौरान
चैन लूटा
दिल लूटा
शोहरत लूटी
दौलत लूटा
आबरू लूटी
विश्वास लूटा
हम हुए हर तरह से नाकाम
ये ये तो उनकी बेवफाई थी जीकर भी सह गया
हम तो भुला न पाये अपनी वफायें !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २३ - ०१ - १९९०
३७८
दिल तोड़ कर मेरा अपनों के बीच भी रहोगे तनहा ,
हर बेवफा तेरी तरह खुश नहीं होता !
दुश्मन की खैर हो मेरी जान का क्या ,
लाखों बार मर कर भी उनके लिए ही जिए हैं !
सोंच समझ कर सब कुछ मिटा दिया ,
किसके लिए जिए थे किसके लिए मरे थे सब भुला दिया
सुधीर कुमार ' सवेरा '
३७७
कितने चिकने
चेहरे उनके
इंसानियत के सौदागर
बातों के जादूगर
आखिर कितनी बार
हम विश्वास करते रहे
और वो
हमारे जख्मों पर
नमक छिड़कते रहें
हम हैं बेबस
या हैं लाचार
क्या सहते रहें
उनके सारे अत्याचार
बातों का धोखा
साथों का धोखा
वादों का धोखा
यादों का धोखा
राहों का धोखा
मुलाकातों का धोखा
ये कुदरत की मज़बूरी मान लें
और धोखे पे धोखे खाते रहें
उनके मक्कारी के हिरासत में
गिरफ्त हैं इस कदर
फरफरायें तो पँख जले
चुप रहें तो बेमौत मरे
हालात ये
कि लब सी लूँ
तो दिल जले
मुंह खोलूं तो आशियाँ ही खाख हो चले
शर्मों हया की बात
तो बेमानी हो गयी है
लुटाते हैं जिन पर जान
उनपर जान ही हमारी भारी हो गयी है
सब्र की हद तक
वो कर गुजरे बेहद
थे कर सकते वो जो - जो
उससे भी बढ़कर
उन्होंने किया वो - वो
जिसका हमें
ख्वाबों में भी गुमाँ न था
दिन के उजाले में ही
वो कैसे ये कर गुजरे
खुदा जाने
मात्र अपनी अस्मिता के लिए
हम सब सहते रहे
ईमान का ये पेड़
इन आँधियों में न उजड़े
बस यही दुआ करते रहे
रिश्तों को मारते हैं ये कैसे
कसाई के बकरे हों हम जैसे
जर्रा - जर्रा इनका जड़ हो गया है
एक हम हैं
इंन्हीं चट्टानों पे
मखमली घास के
उगने की तमन्ना लिए बैठे हैं
किसकी शिकायत
किससे करें
गीदड़ों की की शिकायत में
क्यों शेर से लड़ मरें
जिससे हम चाक - चाक हो जाते हैं
पर उनपर शिकन तक नहीं
जाने कहाँ से
वो ये दिल लाते हैं
दिमाग लाते हैं
जफ़ा लाते हैं
उस पर ये शुकुन
जब की हमें भी
उसी हवा और धुप ने
सींचा है बेख़ौफ़
पर इक परिवर्त्तन
या तो इधर हो
या उधर हो
है बड़ी मुश्किल
दोनों खुश हैं
अपनी गुलामी पर
कुछ इस कदर
कि हम जग नहीं पाते
वो सो नहीं सकते
ना जाने कितनी
और कब तक
हमने गुनाह इस कदर किया
सहते रहने का बोझ
गम खाने की आदत
कुछ न बोलना
घुटते रहना
लोग क्या कहेंगे
इसकी बाबत
या एक झूठी आशा
एक झूठा आदर्श
और एक काल्पनिक
महा शक्तिमान
कोई नाम
एक देवता
बिना आँख
शायद जो देखता
एक भ्रम
वहाँ तक
आँख रहते
देख नहीं पाते जहाँ तक
वही सब ठीक कर देगा
बिना हाथ के
जो हाथ रख कर भी
हम कर नहीं पाते
जिन दूरियों को
पहुँच के भीतर होते हुए भी
हम घटा नहीं पाते
उन्हें भी घटा देगा वो
वो जो पहुँच से दूर है मेरे
एक दिवा स्वप्न
अनादिकाल से जो चला आ रहा
एक परम्परा के तहत
हम भी देखते हैं
और जो न हो सका
युगों - युगों तक
समझते हैं
मेरी छोटी सी उम्र में ही
हो जायेगा सब
और इस तरह जाता
सिलसिला एक समाप्त हो
बोझ अपना
हम लाद देते
इस तरह उन पर
जैसे लाद दिया गया था
कभी हम पर
सींचते हैं
हम जिसको खून से
चाहते हैं
बढ़कर जिसको
जिस्मो जान से
पहुंचा देते हैं
जिनको अपने मुकाम तक
आता है जब वक्त उनका
वो इस कदर
हमें झुठलाते हैं
जैसे वास्ता उनका हमसे
कभी दूर दूर का न था
खाकर गया था
जो नमक और रोटी मेरा
कहते हैं आज वो हमसे
नमक और रोटी खाया नहीं जाता !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
३७६
बड़ी ज्यादतियां हैं तुम्हारी
बेखौफ बिन बुलाये मेहमान की तरह
आ जाती हो इस कदर
मेरे एकांत ख्यालों में
जैसे हो मुझ पर
पुरानी हो अधिकार तुम्हारी
बन अतिथि
मेरे एकांतता को भंग करती
मैं ना जाने क्यों सहर्ष तुम्हे बिठलाकर
अपने ख्यालों में
तुझको पाकर
प्रफुल्लित हो
खो जाता
पूर्णमासी की रात
या हो अमावस की
मेरे ख्यालों की क्षितिज पर
तुम ही तुम छा जाती हो
क्या पाती हो तुम
मेरे मौन निःशब्द
एकांत को भंग कर
चाहता तो नहीं
बुलाता भी नहीं
फिर भी कष्ट क्यों
आने का करती हो
मर - मर कर
मरघट की बाट जोहना
क्या यही
जीवन की है निशानी
या खो देना अपने को
शांत समुद्र के
उत्ताल तरंगों में
या होता रहे यही
अति फिर इति
और पुनः - पुनः पुनरावृति !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०६ - ०२ - १९९०
३७५
एक साथ झेले
दो - दो तूफान
जब थे न हम लायक
दरिया में भी
पाँव रखने को
खुद ही कहा
निकल जाओ
और भूल भी गए
कि निकाला था किसको
हम न थे अच्छे
तो आपने ही
क्या कसर छोड़ा
माना कि
किसी के किये
कुछ नहीं होता
पर वक्त ने तो
आपसे ही करवाया
रहा न विश्वास
अपनों पे
तो गैरों से
शिकवा कैसा
औरों ने तो कम से कम
इतना बुरा न किया
बड़ी बदनसीबी रही है जिंदगी में
जब था नन्हा
खो दिया दादा दादी
खोया नाना नानी
फिर वक्त आया
फाकामस्ती का
गुजरे दिन बचपन के
यूँ ही रोते गाते
माँ बाबूजी के
प्यार के सहारे
वक्त जब पढ़ने को आया
पैसे का साथ न था
की पढ़ाई किसी तरह पूरी
माँ को जब बेहद पड़ा सहना
उसका साथ मस्तिष्क ने छोड़ा
पड़े कदम जब उल्फत में मेरे
बाबूजी थे उलझन में
उजड़ी जब वो दुनियाँ
किसी तरह
उषा ने
जीवन दान दिया
आयी घर में लक्ष्मी
बन कर मेरी बेटी सिद्धि
दिन फिरे
छूटी नौकरी पायी
हर बात में
गम लाखों मैंने खायी
ईश्वर किसी को न ले
परीक्षा इतनी कड़ी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०८ - ०५ - १९९०
३७४
गुम होते कुछ रजत कण
बिखराओं का एक सिलसिला
खामोश
सन्देहयुक्त
निगाह बगुले की तरह
भविष्य को मुख में करने को
अनिक्षा से विश्वास
विश्वासों का बिखराव
अटकलों का मटियामेट
अनुमान सिर्फ सिमटा
या हो गया लोप उसका
प्रकृति
मौन
एक मात्र सबल
अनुमानों के
सही गलत का निर्धारण
मानव नहीं
वो एक कठपुतली
सोंचों का एक ढेर
आशा रूपी चिंगारी
और जिंदगी की
चल पड़ती गाड़ी
इंतजार वक्त का
उत्तमता की आशा
मात्र अपमानों का एक घूंट
दो वक्त की रोटी
कोई बड़ी बात नहीं
महल बनाना है मुश्किल !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०१ - १९८५ -
६ - ४७ pm
३७३
हम भले मुरझा जाएँ
तुम सदा खिलते रहना
काँटों से भरे चमन में भी
तुम सदा हँसते रहना
पूर्णमासी का चाँद
धरा को नहलाये
भौंरा बागों में
कुछ गुनगुनाये
नव किसलय के साथ
बसंत लह लहाए
सागर की मौजें
किनारे को बहलाये
हिम शिखर पिघल - पिघल
झरनो में बलखाये
कहीं कुछ अधूरा था
बाँकी सब पूरा था
वो उषा में उसका सवेरा था
वो उड़ती तितली
वो कुलांचे भरती हिरणी
वो अट्टहास लगाती कोकिला
वो सुरमयी शामों का नशा
वो नदियों का विद्युत
वो अनछुई कली
अब सवेरा की उषा कहलाये
जैसे पूर्णमासी का चाँद
धरा को नहलाये
दोनों एक दूसरे के
बेहद ही मन भाये
दोनों एक दूसरे के
सपनो में हैं समाये
जिंदगी अब उनकी
एक दूसरे की कहलाये !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०१ - १९८५
६ - ३२ pm
३७२
सपने तूँ साकार हो जा
नभ में स्वर का संचार कर
मौन स्वर मालाओं का हार पहना जा
छितरे अविश्वासों के घेरे जा - जा
बिखरे विश्वासघातों के कण
तूँ परे हंट जा
लोभ तूँ घेर मुझे
जग के हित साधने को
मोह तूँ जकड मुझे
अपना सर्वस्व त्याग करने को
काम तूँ मेरे कण - कण में समां जा
ताकि खुले प्रकृति को भोग सकूँ
क्रोध तूँ मुझ में सम्पूर्णता से समा जा
कमजोरों का उपकार कर सकूँ
अहं तूँ दूर बहुत दूर मुझसे चला जा
प्रेम रोम - रोम में तूँ मेरे समा जा
नम्रता तूँ मुझसे सौतेला व्यवहार न कर
कल्पना के शीशे तूँ इस्पात बन जा
गैरों के सारे आंसू
तूँ मेरी आँखों में समा जा
मेरे सपने तूँ साकार हो जा
साकार होकर तूँ निराकार हो जा !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १४ - ११ - १९८४
१० - ४० pm
३७१
बहुत कठिन होता है
परम्पराओं से अलग होना
जो ऐसा करता है
दूभर हो जाता है उसका जीना
नए प्रयोग करना
कम साहस की है बात नहीं
इस साहस की कल्पना करना भी
कम दुस्साहस की है बात नहीं
मैं पापी बहुत बड़ा
सबसे बड़ा पाप किया है
किया किसी पे विश्वास
वही सबसे बड़ा घात किया !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
३७०
वो तारीख इबादत की बनी
पैदा लिया जब
शक्ति का प्रकाश
इस देश में
दिन वो १७ नवम्बर १९१७ का था
बन विश्व का प्रकाशस्रोत
थामी थी १९६६ में जो मशाल
बुझा दिया जालिम हाथों ने उसे आज
मात्र १६ वर्षों के शासन में
उसने दिए अनगिनत उपहार
अर्पण करता हूँ उसे
मैं अपने श्रद्धा सुमन का उपहार
विश्व में शांति सद्भावना
देश की एकता का ही
था जिसका लक्ष्य महान
अर्पण है उसे शत शत नमन
सच जैसा उसने कहा
काम आयी उसके खून की एक - एक बूँद
देश सदा उनका कर्जदार रहेगा
ऋण कभी उसका चूका न पायेगा
हा ! आकाश आज सुना
सूरज ने मौन साध ली हो जैसे
हा ! चंदा रातों का उजाला
किस अज्ञात गर्भ में समां गया
क्षीण तारों से भरे आकाश में
बंधेगी भला कैसी आशा
तूँ हुई अमर
सदा जग में ऊँचा रहेगा तेरा नाम
इंद्रा तुझे शत शत प्रणाम !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०१ - ११ - १९८४
१ - २० pm
३६९
दिमाग अपना गगरी
मिजाज अपना पगड़ी
बात तो व्यक्तिगत ही है
और यह आज से नहीं
आदिकाल से है
क्या तूँ मनुष्य नहीं
मनुष्य है तो अकेला है
अकेला है तो व्यक्तिगत है
सो नहीं तो समझ ले
तूँ मनुष्य ही नहीं
गर्मी बहुत हो
तो पीस - पीस कर पियो जीरा
पर ठंढे का इलाज नहीं
भले बिछा लो चारों तरफ हीरा
सवालों का सिलसिला
मौन का वातावरण तैयार करता
खामोश जुबान
निगाहों से बात करता
अतिशय कुरूपता में
सुंदरता का सार छिपा होता
अतिशय सुंदरता में
कुरूपता का अंश झलकता !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - १० १९८४
३६८
ऐ मोहब्बत
रंग तेरे बहुरंगे
इंकार भी तूँ है
इकरार भी तूँ है
वफ़ा भी तूँ है
बेवफ़ा भी तूँ है
इंतजार भी तूँ है
मिलन भी तूँ है
और जुदाई भी तूँ है
रूठना भी तूँ ही है
शरमाना भी है
तो मुस्कुराना भी है
इठलाना भी तूँ ही है
विश्वास भी तूँ है
अविश्वास भी तूँ है
पाना भी तूँ है
तो त्याग भी तूँ ही है
सपनो का संसार तूँ है
तो सच्चाई भी तूँ ही है
तूँ है एक
पर रंग हैं तेरे अनेक
भगवान का भैल्यू नहीं
इंसान की पहचान नहीं
कानून की भी सुनवाई नहीं
पत्थर का भी अपमान रहा
ईमान का देखवाई नहीं !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २८ / २९ - १० - १९८४
५ - २० pm ११ - १० am
३६७
वाह ' सवेरा '
बहुत हँसी है
तेरे जिंदगी का अँधेरा
जिसने तुझे दगा दिया
जिंदगी में देख उसके
चारों और है उजाला
तूँ कह पाये या न
जमाना तो कह लेगा ही
उस जानम को बेवफ़ा
सच ' सवेरा '
क्या जादू है प्यार में
नजरों के रास्ते
उतरता है दिल में
फिर समाती ही चली जाती है
शरीर की आत्मा में
यह भी देखा
जो मैं करता था सुना
भर देता है वक्त
जख्म हो कितना भी बड़ा
पर प्यार का जख्म
भरता नहीं शायद
मर कर भी कभी
वक्त कहने को
कुछ कम नहीं गुजरे
मेरे चेहरे से
आवाजों से
शायद अक्श धूमिल पर गए हों
उस बेइंतिहा प्यार के
पर मिट नही पाये हैं
गहरे जख्म उस प्यार के
सोंचता है दिल कभी कभी
गुजर जाती है
लम्बी जिंदगानी जिस कदर
प्यार के क्षणों में पल बन कर
दूभर हो जाता है उसी कदर
मज़बूरी में सम्बन्ध निभाना पल भर !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - १० - १९८४
१२ - ४५ pm
३६६
ये शय तेरी
बहुत बुरी है ' सवेरा '
बेवफाई जिसने तुझ से की
याद सीने में उसकी दबाये घुमा करते हो
वाह ' सवेरा '
सुबह की लाली देख कर
फूल तूने खिलाये
आँसुओं से भरे
रात की सारी कालीमाओं
दामन में अपने समेट लिया
ऐसी ही हसरत थी तो
क्यों न गला अपना दबा लिया
सुगंध भी हूँ तो तेरे ही बाग का
दुर्गन्ध भी हूँ तो तेरे ही बाग का
जब तूने जैसा नीर पटाया
गंध मैंने तब वैसा ही फैलाया
है पास नहीं कुछ मेरे
फिर भी खूब लुटाता हूँ
भूखे तृप्त हो कर जाते हैं
घट जिनका है भरा हुआ
पेट उनका भी मैं भरता हूँ !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १४ - १० - १९८४
३६५
अतिशय विश्वास
जन्मदाता शंसय का
विचारों का प्रतिरोध
अधिकार जन्मदाता
हक़ के बोध का
लगा लेना
अर्थ विपरीत
मानव के
बुद्धि गर्व का
है एक विकार
पल में
कुछ भी
हो सकता है धूल धूसरित
एक शंका की चोट
डंके को भी देती है फोड़
समय देता है बदल
अर्थ बदनसीबों का
ज्ञान रह जाता धरा पड़ा
नसीब चुना लगा जाता
ऐसा जब आभास होता हो
मुर्दों की नगरी में हम घूम रहे
खुद को जानने का
सही वक्त उसे ही समझें
श्री हीन हो
श्री कहलाना
श्री देवी का सरासर अपमान है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १२ - १० - १९८४
१ - ०० pm
३६४
दर मैं अपना खुला रखूं
भला अब किसके वास्ते
जिन्हे आना था घर मेरे
वो तो दूसरों के घर गये
तरपते अरमान और टूटते ख्याल
फितरत में मिले हैं दिल को
दिन वो बहुरेंगे
उनके साथ जो थे खेले
ना जाने कब के वो गुजर गए
कमर कस कर
उठा था एक बार ये मन
चढ़ी हुई खून की गर्मी
ना जाने कब सब के सब उत्तर गए
वादों के झोंकों ने
ना जाने कब के सपनो के महल तोड़ गए
उजड़े पेड़ में जो
नव किसलय खिलाये थे मैंने
ना जाने कब के दामन से मेरे बिखर गए
राहे ' सवेरा ' के जिंदगी में
शामें तन्हाई
ना जाने कब के आई और समाती चली गयी
यादों के तारों का शिरा
मन के बंधन से
ना जाने कैसे दृढ होते चले गए
शामें वैसे ही रहीं
पर ना जाने क्यों
जिंदगी के अर्थ बदलते चले गए !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १५ - ०९ - १९८४
३६३
ऊँची लहर
और एक तूफान का गुजरना
खामोश जुबान
और निगाहों से कुछ कहना
हर वर्तमान में
अतीत का यूँ झलकना
खामोश मन
आत्मा का सिसकना
राहे सफ़र में
यूँ तनहा गुजरना
हर झूठी आशा पे
जीवन का यूँ लटकना
वादों के खातिर
भविष्य का बाट जोहना
झूठ के थपकियों से
सच को सुलाना
हर नवीन धोखे से
जी को यूँ बहलाना
दर्द के हाथों से
खुशियों को लुटाना
कब किसने वफ़ा किया
कह गए सब
जालिम है ये जमाना
डूबते का क्या दामन थामा
अपना भी बन गया एक फ़साना
बेमतलब का ये जमाना
भला इसको क्या मनाना !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०६ - ०९ - १९८४
१२ - ५० pm
३६२
जीवन की कगारें
एक एक कर
टूटती चली गयी
एक विश्वास
एक स्नेह
एक आस्था
एक अपनापन
मिलन की एक तरप
यादों के सुनहरे
ताने बाने
साथ जीने
साथ मरने की
एक अमर चाह
सब बिखर गयी
रह गयी मात्र
एक न
ख़त्म होने वाली आह
प्यार को
उसने मारकर
विश्वासघात कर
सुनहरा चादर ओढ़कर
पूछा तक नहीं
बनी उसके
प्यार की कब्र कहाँ
हा नियती
करता हूँ प्रणाम तुझे
ऐसे विपदाओं को
देकर भी यूँ
दे देते हो
ना जाने
कैसी शक्ति
मरने की जगह
जी रहे हैं
रोने की जगह
हँस रहे हैं
हाँ प्रकृति
तूँ ही विश्वास
तूँ ही विश्वासघात
तूँ ही सच
तूँ ही झूठ
अच्छा हुआ तूने मुझे दर्द दिया
झोली उसकी खुशियों से भर दी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २२ - ०८ - १९८४
५ - ३० pm
३६१
मैं मर चूका हूँ
गुजरे वक्त के लिए
मैं अभी पैदा नहीं हुआ हूँ
आने वाले कल के लिए
आज का दिन
आखरी दिन है
मेरे जिंदगी के लिए
काँपते अँगुलियों से
भविष्य के कँगूरे पर
कुछ नक्काशी रचे थे
भूत मेरे साथ था
और
वर्तमान फिसल गया
ऐ ' सवेरा ' देख जिंदगी मशगूल है कितनी औरों की
बातें किया करते हैं जो गैरों की
अपने का जिन्हे पता नहीं
पता बताया करते हैं वो गैरों की
चेतना में मैंने स्व को खो दिया
जड़ होकर मैं
चेतनता को पा गया
थाम ले कर्म को
भूल जा भाग्य को
विसरा दे अतीत को
प्राप्ति में संतोष कर
प्राप्त कर ले हर ख़ुशी को !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०४ - ०८ - १९८४
३६०
वो बिखरी
जिंदगी की कालीमाएं
आ सिमट कर
गुजरते वक्त को
छिनती जा
आनेवाले कल से
मुझे दूर रख
सपाट समतल
मेरे मोहब्बत की राह में
बेवफाई का काँटा
खिला और मुझे
पता तक नहीं
इश्क वो जूनून है
रात को रात
मानता नहीं कभी
दिन को दिन
तुम दूर से आओ
दौड़ते हुए आओ
समाविष्ट मुझ में
बेहिचक हो जाओ
ताकि तेरे हर गम
हर गैरत और ख़ुदग़र्ज़ियाँ
टकराकर मुझ से
बिखर जाएँ
और तूँ हो जाये आजाद !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०८ - १९८४