रविवार, 25 जनवरी 2015

376 . बड़ी ज्यादतियां हैं तुम्हारी

३७६ 
बड़ी ज्यादतियां हैं तुम्हारी 
बेखौफ बिन बुलाये मेहमान की तरह 
आ जाती हो इस कदर 
मेरे एकांत ख्यालों में 
जैसे हो मुझ पर 
पुरानी हो अधिकार तुम्हारी 
बन अतिथि 
मेरे एकांतता को भंग करती 
मैं ना जाने क्यों सहर्ष तुम्हे बिठलाकर 
अपने ख्यालों में 
तुझको पाकर 
प्रफुल्लित हो 
खो जाता 
पूर्णमासी की रात 
या हो अमावस की 
मेरे ख्यालों की क्षितिज पर 
तुम ही तुम छा जाती हो 
क्या पाती हो तुम 
मेरे मौन निःशब्द 
एकांत को भंग कर 
चाहता तो नहीं 
बुलाता भी नहीं 
फिर भी कष्ट क्यों 
आने का करती हो 
मर - मर कर 
मरघट की बाट जोहना 
क्या यही 
जीवन की है निशानी 
या खो देना अपने को 
शांत समुद्र के 
उत्ताल तरंगों में 
या होता रहे यही 
अति फिर इति 
और पुनः - पुनः पुनरावृति !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०६ - ०२ - १९९० 

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