३७४
गुम होते कुछ रजत कण
बिखराओं का एक सिलसिला
खामोश
सन्देहयुक्त
निगाह बगुले की तरह
भविष्य को मुख में करने को
अनिक्षा से विश्वास
विश्वासों का बिखराव
अटकलों का मटियामेट
अनुमान सिर्फ सिमटा
या हो गया लोप उसका
प्रकृति
मौन
एक मात्र सबल
अनुमानों के
सही गलत का निर्धारण
मानव नहीं
वो एक कठपुतली
सोंचों का एक ढेर
आशा रूपी चिंगारी
और जिंदगी की
चल पड़ती गाड़ी
इंतजार वक्त का
उत्तमता की आशा
मात्र अपमानों का एक घूंट
दो वक्त की रोटी
कोई बड़ी बात नहीं
महल बनाना है मुश्किल !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०१ - १९८५ -
६ - ४७ pm
गुम होते कुछ रजत कण
बिखराओं का एक सिलसिला
खामोश
सन्देहयुक्त
निगाह बगुले की तरह
भविष्य को मुख में करने को
अनिक्षा से विश्वास
विश्वासों का बिखराव
अटकलों का मटियामेट
अनुमान सिर्फ सिमटा
या हो गया लोप उसका
प्रकृति
मौन
एक मात्र सबल
अनुमानों के
सही गलत का निर्धारण
मानव नहीं
वो एक कठपुतली
सोंचों का एक ढेर
आशा रूपी चिंगारी
और जिंदगी की
चल पड़ती गाड़ी
इंतजार वक्त का
उत्तमता की आशा
मात्र अपमानों का एक घूंट
दो वक्त की रोटी
कोई बड़ी बात नहीं
महल बनाना है मुश्किल !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०१ - १९८५ -
६ - ४७ pm
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