३७३
हम भले मुरझा जाएँ
तुम सदा खिलते रहना
काँटों से भरे चमन में भी
तुम सदा हँसते रहना
पूर्णमासी का चाँद
धरा को नहलाये
भौंरा बागों में
कुछ गुनगुनाये
नव किसलय के साथ
बसंत लह लहाए
सागर की मौजें
किनारे को बहलाये
हिम शिखर पिघल - पिघल
झरनो में बलखाये
कहीं कुछ अधूरा था
बाँकी सब पूरा था
वो उषा में उसका सवेरा था
वो उड़ती तितली
वो कुलांचे भरती हिरणी
वो अट्टहास लगाती कोकिला
वो सुरमयी शामों का नशा
वो नदियों का विद्युत
वो अनछुई कली
अब सवेरा की उषा कहलाये
जैसे पूर्णमासी का चाँद
धरा को नहलाये
दोनों एक दूसरे के
बेहद ही मन भाये
दोनों एक दूसरे के
सपनो में हैं समाये
जिंदगी अब उनकी
एक दूसरे की कहलाये !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०१ - १९८५
६ - ३२ pm
हम भले मुरझा जाएँ
तुम सदा खिलते रहना
काँटों से भरे चमन में भी
तुम सदा हँसते रहना
पूर्णमासी का चाँद
धरा को नहलाये
भौंरा बागों में
कुछ गुनगुनाये
नव किसलय के साथ
बसंत लह लहाए
सागर की मौजें
किनारे को बहलाये
हिम शिखर पिघल - पिघल
झरनो में बलखाये
कहीं कुछ अधूरा था
बाँकी सब पूरा था
वो उषा में उसका सवेरा था
वो उड़ती तितली
वो कुलांचे भरती हिरणी
वो अट्टहास लगाती कोकिला
वो सुरमयी शामों का नशा
वो नदियों का विद्युत
वो अनछुई कली
अब सवेरा की उषा कहलाये
जैसे पूर्णमासी का चाँद
धरा को नहलाये
दोनों एक दूसरे के
बेहद ही मन भाये
दोनों एक दूसरे के
सपनो में हैं समाये
जिंदगी अब उनकी
एक दूसरे की कहलाये !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०१ - १९८५
६ - ३२ pm
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