शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

360 .वो बिखरी

३६० 
वो बिखरी 
जिंदगी की कालीमाएं
आ सिमट कर 
गुजरते वक्त को 
छिनती जा 
आनेवाले कल से 
मुझे दूर रख 
सपाट समतल 
मेरे मोहब्बत की राह में 
बेवफाई का काँटा 
खिला और मुझे 
पता तक नहीं 
इश्क वो जूनून है 
रात को रात 
मानता नहीं कभी 
दिन को दिन 
तुम दूर से आओ 
दौड़ते हुए आओ 
समाविष्ट मुझ में 
बेहिचक हो जाओ 
ताकि तेरे हर गम 
हर गैरत और ख़ुदग़र्ज़ियाँ 
टकराकर मुझ से 
बिखर जाएँ 
और तूँ हो जाये आजाद !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०८ - १९८४  

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