३७७
कितने चिकने
चेहरे उनके
इंसानियत के सौदागर
बातों के जादूगर
आखिर कितनी बार
हम विश्वास करते रहे
और वो
हमारे जख्मों पर
नमक छिड़कते रहें
हम हैं बेबस
या हैं लाचार
क्या सहते रहें
उनके सारे अत्याचार
बातों का धोखा
साथों का धोखा
वादों का धोखा
यादों का धोखा
राहों का धोखा
मुलाकातों का धोखा
ये कुदरत की मज़बूरी मान लें
और धोखे पे धोखे खाते रहें
उनके मक्कारी के हिरासत में
गिरफ्त हैं इस कदर
फरफरायें तो पँख जले
चुप रहें तो बेमौत मरे
हालात ये
कि लब सी लूँ
तो दिल जले
मुंह खोलूं तो आशियाँ ही खाख हो चले
शर्मों हया की बात
तो बेमानी हो गयी है
लुटाते हैं जिन पर जान
उनपर जान ही हमारी भारी हो गयी है
सब्र की हद तक
वो कर गुजरे बेहद
थे कर सकते वो जो - जो
उससे भी बढ़कर
उन्होंने किया वो - वो
जिसका हमें
ख्वाबों में भी गुमाँ न था
दिन के उजाले में ही
वो कैसे ये कर गुजरे
खुदा जाने
मात्र अपनी अस्मिता के लिए
हम सब सहते रहे
ईमान का ये पेड़
इन आँधियों में न उजड़े
बस यही दुआ करते रहे
रिश्तों को मारते हैं ये कैसे
कसाई के बकरे हों हम जैसे
जर्रा - जर्रा इनका जड़ हो गया है
एक हम हैं
इंन्हीं चट्टानों पे
मखमली घास के
उगने की तमन्ना लिए बैठे हैं
किसकी शिकायत
किससे करें
गीदड़ों की की शिकायत में
क्यों शेर से लड़ मरें
जिससे हम चाक - चाक हो जाते हैं
पर उनपर शिकन तक नहीं
जाने कहाँ से
वो ये दिल लाते हैं
दिमाग लाते हैं
जफ़ा लाते हैं
उस पर ये शुकुन
जब की हमें भी
उसी हवा और धुप ने
सींचा है बेख़ौफ़
पर इक परिवर्त्तन
या तो इधर हो
या उधर हो
है बड़ी मुश्किल
दोनों खुश हैं
अपनी गुलामी पर
कुछ इस कदर
कि हम जग नहीं पाते
वो सो नहीं सकते
ना जाने कितनी
और कब तक
हमने गुनाह इस कदर किया
सहते रहने का बोझ
गम खाने की आदत
कुछ न बोलना
घुटते रहना
लोग क्या कहेंगे
इसकी बाबत
या एक झूठी आशा
एक झूठा आदर्श
और एक काल्पनिक
महा शक्तिमान
कोई नाम
एक देवता
बिना आँख
शायद जो देखता
एक भ्रम
वहाँ तक
आँख रहते
देख नहीं पाते जहाँ तक
वही सब ठीक कर देगा
बिना हाथ के
जो हाथ रख कर भी
हम कर नहीं पाते
जिन दूरियों को
पहुँच के भीतर होते हुए भी
हम घटा नहीं पाते
उन्हें भी घटा देगा वो
वो जो पहुँच से दूर है मेरे
एक दिवा स्वप्न
अनादिकाल से जो चला आ रहा
एक परम्परा के तहत
हम भी देखते हैं
और जो न हो सका
युगों - युगों तक
समझते हैं
मेरी छोटी सी उम्र में ही
हो जायेगा सब
और इस तरह जाता
सिलसिला एक समाप्त हो
बोझ अपना
हम लाद देते
इस तरह उन पर
जैसे लाद दिया गया था
कभी हम पर
सींचते हैं
हम जिसको खून से
चाहते हैं
बढ़कर जिसको
जिस्मो जान से
पहुंचा देते हैं
जिनको अपने मुकाम तक
आता है जब वक्त उनका
वो इस कदर
हमें झुठलाते हैं
जैसे वास्ता उनका हमसे
कभी दूर दूर का न था
खाकर गया था
जो नमक और रोटी मेरा
कहते हैं आज वो हमसे
नमक और रोटी खाया नहीं जाता !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
कितने चिकने
चेहरे उनके
इंसानियत के सौदागर
बातों के जादूगर
आखिर कितनी बार
हम विश्वास करते रहे
और वो
हमारे जख्मों पर
नमक छिड़कते रहें
हम हैं बेबस
या हैं लाचार
क्या सहते रहें
उनके सारे अत्याचार
बातों का धोखा
साथों का धोखा
वादों का धोखा
यादों का धोखा
राहों का धोखा
मुलाकातों का धोखा
ये कुदरत की मज़बूरी मान लें
और धोखे पे धोखे खाते रहें
उनके मक्कारी के हिरासत में
गिरफ्त हैं इस कदर
फरफरायें तो पँख जले
चुप रहें तो बेमौत मरे
हालात ये
कि लब सी लूँ
तो दिल जले
मुंह खोलूं तो आशियाँ ही खाख हो चले
शर्मों हया की बात
तो बेमानी हो गयी है
लुटाते हैं जिन पर जान
उनपर जान ही हमारी भारी हो गयी है
सब्र की हद तक
वो कर गुजरे बेहद
थे कर सकते वो जो - जो
उससे भी बढ़कर
उन्होंने किया वो - वो
जिसका हमें
ख्वाबों में भी गुमाँ न था
दिन के उजाले में ही
वो कैसे ये कर गुजरे
खुदा जाने
मात्र अपनी अस्मिता के लिए
हम सब सहते रहे
ईमान का ये पेड़
इन आँधियों में न उजड़े
बस यही दुआ करते रहे
रिश्तों को मारते हैं ये कैसे
कसाई के बकरे हों हम जैसे
जर्रा - जर्रा इनका जड़ हो गया है
एक हम हैं
इंन्हीं चट्टानों पे
मखमली घास के
उगने की तमन्ना लिए बैठे हैं
किसकी शिकायत
किससे करें
गीदड़ों की की शिकायत में
क्यों शेर से लड़ मरें
जिससे हम चाक - चाक हो जाते हैं
पर उनपर शिकन तक नहीं
जाने कहाँ से
वो ये दिल लाते हैं
दिमाग लाते हैं
जफ़ा लाते हैं
उस पर ये शुकुन
जब की हमें भी
उसी हवा और धुप ने
सींचा है बेख़ौफ़
पर इक परिवर्त्तन
या तो इधर हो
या उधर हो
है बड़ी मुश्किल
दोनों खुश हैं
अपनी गुलामी पर
कुछ इस कदर
कि हम जग नहीं पाते
वो सो नहीं सकते
ना जाने कितनी
और कब तक
हमने गुनाह इस कदर किया
सहते रहने का बोझ
गम खाने की आदत
कुछ न बोलना
घुटते रहना
लोग क्या कहेंगे
इसकी बाबत
या एक झूठी आशा
एक झूठा आदर्श
और एक काल्पनिक
महा शक्तिमान
कोई नाम
एक देवता
बिना आँख
शायद जो देखता
एक भ्रम
वहाँ तक
आँख रहते
देख नहीं पाते जहाँ तक
वही सब ठीक कर देगा
बिना हाथ के
जो हाथ रख कर भी
हम कर नहीं पाते
जिन दूरियों को
पहुँच के भीतर होते हुए भी
हम घटा नहीं पाते
उन्हें भी घटा देगा वो
वो जो पहुँच से दूर है मेरे
एक दिवा स्वप्न
अनादिकाल से जो चला आ रहा
एक परम्परा के तहत
हम भी देखते हैं
और जो न हो सका
युगों - युगों तक
समझते हैं
मेरी छोटी सी उम्र में ही
हो जायेगा सब
और इस तरह जाता
सिलसिला एक समाप्त हो
बोझ अपना
हम लाद देते
इस तरह उन पर
जैसे लाद दिया गया था
कभी हम पर
सींचते हैं
हम जिसको खून से
चाहते हैं
बढ़कर जिसको
जिस्मो जान से
पहुंचा देते हैं
जिनको अपने मुकाम तक
आता है जब वक्त उनका
वो इस कदर
हमें झुठलाते हैं
जैसे वास्ता उनका हमसे
कभी दूर दूर का न था
खाकर गया था
जो नमक और रोटी मेरा
कहते हैं आज वो हमसे
नमक और रोटी खाया नहीं जाता !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
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