४९६
घटना ?
एक क्रिया
एक प्रारब्ध
एक होनी
प्रत्येक घटना के पीछे
कितने तथ्य हैं छुपे हुए
पर हम क्या सभी जान पाते ?
संभव ही नहीं है
अपने - अपने दृष्टिकोण के
हम सभी कायल हैं
अपने प्रकृति के हम गुलाम हैं
गुलामी हमें प्यारी है शायद ?
हम उसे सारी शक्ति से दबोचे रखते हैं
और चिल्लाना शुरू करते हैं
अपने अल्पग्यता के अहंकार पर
मैं समझ गया
किस घटना से क्या जुड़ा है
अर्ध स्वतंत्रता की यह पहचान है
स्वतंत्रता की अभिलाषा ही
मर चुकी है शायद हमारी
पर प्राण तो फूंकना पड़ेगा ही
माँ को जगाना ही होगा
अन्यथा वैसे ही हम
अनुमान के वैशाखी पर
चलते रह जायेंगे
किसी मोटर से मरे कुत्ते को देख
हम कहेंगे बेचारा मर गया
वह कहेगा उसकी नियति
किसी का नुकसान
किसी का फायदा
घटनाओं का है यही नतीजा
दृष्टिकोण पे है ये आधारित
घटना न होती अच्छी
ना ही कोई बुरी
घटना तो मात्र घटना है
घटना को किसी से क्या लेना है ?
अपघटित कभी घटता नहीं
घटित को तो घटित होना है
घटना तो मात्र घटना है
घटना को किसीसे क्या लेना है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४९५
दोष ?
किसको दें ?
किससे कहें ?
किसमें देखें ?
किसका छुपाएँ ?
अपने से पीछे का
हम देखा नहीं करते
जो आगे हैं
उसमे ही ढूंढा करते
उससे ईर्ष्या करते
मन ही मन कुढ़ते और जलते
फिर एक दोष और कर बैठते
निंदा उसकी शुरू कर देते
खुद से खुद को हरा देते
उसको जीत दिला देते
करते ही निंदा उसकी
उसे हम खुद से बड़ा
स्वीकार कर लेते !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४९४
तेरा नहीं मेरा नहीं
सच पूछो तो
कोई हमारा नहीं
खेल बहुत यहाँ
पर दूर माँ से बैठो
उसकी किस्मत को क्या कहें ?
उसका कहीं गुजारा नहीं !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४९३
माँ काली
मारा तुमने मधु कैटभ
क्यों न हरती मेरा कष्ट
विषय वासनाओं के मधु पर
भटक रहा मेरा तन मन
कितने असुर मेरे मन में
कितने बसते मेरे तन में
राग द्वेष की ज्वाला में
रह न पाती बुद्धि वश में
काले भुजंग की नैया
लगती मुझको शीतल शैया
कैसे पहुँचाऊँ तुझ तक
व्यथा कथा मैं दीन - हीना
ओ ! कृपालु करुणामयी माँ
राह मैं तेरी तकूँ
कण - कण में तुझको निहारूं
एक भ्रम एक वहम
मेरे अंतर में हो उपजाती
मेरे ये मधु कैटभ माँ
अब तुम्ही इन्हे सम्भालो
अपने चरणो में मुझे लगालो !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४९२
खुद से खुद को हरा देते
उसको जीत दिला देते
करते ही निंदा उसकी
उसे हम खुद से बड़ा
स्वीकार कर लेते !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४९१
क्या मैं शरीर हूँ ?
बहुत दयनीय असहाय हूँ
औरों की तो बात छोड़ो
त्रस्त हैं ……………………
अपने ही शत्रु से
ईर्ष्या काम क्रोध से
चींटी और मच्छर भी
जब जिसे मौका लगता
नोंच खसोट है खाता
सत्य है यह………………………
मैं शरीर हूँ नहीं
पीटे सर महाकाल भी
तो मेरा क्या बिगाड़ेगा
मैं तो बेटा माँ का
अजर अमर हूँ अविनाशी
मृत्यु भी मेरा क्या कर लेगा ?
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४९०
इस देह का क्या महत्व
जिसे हर पल डर होता
कभी शत्रु कभी शासक का
डाकू का मित्र का देवता का
भूत प्रेत दैत्य का
फिर कैसा इससे ममत्व
हम इससे अलग हैं
पूर्ण रूपेण स्वतंत्र हैं
आत्मा को माँ में लगाना है
चरम सुख को पाना है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८९
मरना हमको है नहीं
मारना अज्ञान को है
हम भला कैसे मरेंगे
हम हैं अमृत पुत्र
देह से क्या लेना
व्यर्थ की यह बात
जो क्षीण हो रहा
उससे क्या लेना है
जो क्षणभंगुर है
उसकी क्या चिंता करना
आत्मा को बस जानो
जो अजर अमर अविनाशी है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८८
जड़ भला कब चेतन हुआ ?
अंधकार भला कब सूर्य को छुआ ?
अज्ञान ने कब ज्ञान पाया ?
माया मोह नाम तेरे बहुतेरे
मैं तो हूँ पूर्ण चेतन
इसमें भला क्या है स्वप्न !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८७
क्या जीना क्या मरना
बस एक खेल यह
जो है चलता रहता
निर्वाध निरंतर सर्वदा सतत
एक चोला बदलने सा
नूतन वस्त्र पहनने सा
फिर उत्कंठा यह कैसी ?
किससे क्या है लेना
माँ का यह खेल
खेले वह खेले हम
चलती रहे माँ की रेल
चरणों में सदा रहें हम !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८६
आना - जाना , जीना - मरना
दुनियाँ का काम पुराना
हम क्यों डरें भला ?
आत्मा है , हमारा सत्यरूप
हम हैं सदा अविनाशी
डरते क्यों महाकाल के भूप !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८५
इस जीवन का रहस्य
माया की दुनियाँ का
भला क्या है कहानी ?
पूछ सको तो पूछो
माया जाल क्षण में कटेगा
पर प्रिय !
तुम तो !
लिपटे हो रोने गाने में
इसलिए तो माया इतराती है
आना जाना तब भला कैसे छूटे !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८४
मेरी भूलों से माँ
पाता हूँ मैं दुःख
यह है मेरी भूल
तेरी क्या भूल नहीं ?
जो मैं करता भूल
जब माँ तूँ है मेरी
तो क्यों पाता ह्रदय शूल ?
कर माफ़ मेरी हर भूल !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८३
माँ के राज्य में इंसाफ है
कुछ देर है पर अंधेर नहीं
हे कृपालु माँ तूँ ही अब बता
क्या देर यह , है अंधेर नहीं !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८२
मेरी दुर्बलताएँ अनंत हैं
पर उसकी करुणा का कहाँ अंत है ?
मेरी गलतियों का छोड़ नहीं
पर उसकी दया का कहाँ ठौर है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८१
माँ के चरणों को त्याग कर
चिल्लाते रह जाओगे काम - काम
भटकते रह जाओगे भव सागर में
पर मिल न पायेगा विश्राम !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४८०
प्रीति मुझसे काल की ग्रह की
मेरे तेरे कर्मों के निर्णायक की
हर पल जो साथ रहती
' सवेरा ' ने सुबह के उजाले में
ना जाने क्या - क्या खोया ?
दर्द , दीनता , दुर्बलता , दुःख , कायरता
अति शोक भोग रोग योग
पर शायद माँ भी कहीं सोयी !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७९
कब करना था कुछ भी ?
अब भी क्या करना है ?
माँ को बस पुकारना है
प्रयासों से हम थक चुके
अब तो माँ को ही उबारना है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७८
यम का दंड बड़ा भयंकर
पर होता नहीं उनके लिए
माँ चरणो में जो रत रहते
आचार्य बंधू और सखा भी
उनके तो सब कुछ माँ ही होते !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७७
पावर पद संपत्ति मान भरपूर
हो न जाना घमंड में चूर
देना होगा सारा हिसाब वहाँ
आएगा न कोई काम जहाँ
माँ के चरणो में मन लगा
क्लेश हंटा पीड़ा भगा !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७६
मोह ममता है झूठी
भोग झूठे आशा झूठी
कहते सभी सुनते सभी
दिन रात इन्ही में पड़े
तभी तो कहते हैं
यही है अविद्याग्रस्त जीवन !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७५
छत नभ के विस्तृत हैं
पर अपने - अपने खोल लो
उड़ो आकाश में दूर - दूर
आश्रय चाहिए तुझको मन में
जगत ही है जल रहा
अनान्द्ग्नी है बस माँ में !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७४
क्या मैं कहूँ
कौन सी वह राह है ?
जो आती है यहाँ
जो जाती है वहाँ
तुम पार हो तो कैसे ?
कहाँ पर थाह है ?
थाम लो माँ के चरण
थाह ही थाह है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७३
कँपाते थे जगत को जो
कीर्ति पताका जिनका था नभ पर
नाम बस शेष बचा है उनका
निशान नहीं कहीं उनकी समाधी का !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७२
सुख और शांति
गर हो चाहते
माँ के चरणो में
ध्यान अपना लगाओ
माया में मन
लगाने से भला
शांति मिल पाते ?
व्यर्थ हो भटकते
औरों से क्या आशा
कौन आकर देगा जगा
कौन भला देगा मिला
मेरे लिए करेगा कौन साधन
व्यर्थ है झूठी आशा
बहलाते जी गर यूँ ही रहे
एक दिन ठगे जावोगे
अपना ही जीवन भटकाओगे !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७१
एक दो तीन
हो रहा क्षीण
पर रहा बीन
ऐसे मधुर क्षण
मृत्युपरांत भी जो
बने रहेंगे अमृत कण !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४७०
भर कर मन में मैल खुद
ढूंढते हो सच्चे संत इधर - उधर
कहते हो मिलते अब वो किधर
अपना अहंकार तुम छोड़ नहीं पाते
बांध कर मुष्टि में अहंकार तुम
भटकोगे अगर तुम जीवन भर भी
हाथ अपने मगर कुछ न पावोगे !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४६९
है हम पे उपकार उसका
जो हमारा अपकार निंदा करता
भोग तो है मेरे भाग्य का
अहसान उसका मेरा अशुभ बाँटता !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४६८
महत्व नहीं इसका
अब तक क्या किया
योजनाएं हैं क्या ?
व्यर्थ बकवाद भरा
महत्व इसमें है
मैं कर रहा क्या
सावधानी उत्कंठा
है कितना भरा हुआ !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४६७
परमाणु के केंद्र में
विश्व विखण्डनी महाशक्ति
जल बिंदु में है
महती शीतलता भरती
जानते नहीं खुद को जब तक
क्षुद्र हैं , मानते क्षुद्र जब तक
जानने का नाम है
हम चैतन्य अनंत तक !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४६६
प्रशंसनीय तुम कर्म करो
मत चाहो पाना प्रशंसा
अन्यथा मन में उपजेगी
औरों के प्रति हिंसा
क्या यह देगा तुझको शोभा ?
क्यों उपजाते मन में अहंकार का पौधा !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
४६५
मिलते जब लोगों से
तो रखो इतना ध्यान
या गुण गाओ संत का
या ईश्वर का गुणगान
पर की निंदा भारी पाप
मत भरो मन में
औरों की विष्ठा आप !
सुधीर कुमार ' सवेरा '