बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

36. बहुत की दोस्ती


36- 

बहुत की दोस्ती 
ये दोस्त तेरे साथ 
हर बार सहे 
जब - जब किया तुने घात 
ये मेरे यार 
तुझको मिलेगा हमेशा मेरा प्यार 
पर बहुत खेद है मुझे
न रहेगा अब तेरा साथ
     मानवीय गुण के कारण मजबूर हूँ 
ऊपर से बेहद गमगीन हूँ 
कब तक समय के आश में 
एक हाथ से ताली बजाता रहूँ 
ताली के लिय चाहिए दो हाथ 
फिर कहो भला 
अब कैसे रहेगा अपना साथ 
इतने पर ही गर खिंच लूँ अपना हाथ 
श्हयद रह जाए बंधी 
जीवन भर दोस्ती की बात
चूँकि अब मैं शायद 
 धैर्य खो रहा हूँ हर बार ! 

सुधीर ' कुमार सवेरा '  19 - 07- 1980               

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

35. क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षण भर तक


35-

क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षण भर तक 
  अधिक नहीं बस अरुणोदय से अस्त तक 
है बीत रहा यह जीवन पल - पल 
है हुआ आभास नहीं तुझको अब तक 
नित नविन नूतन ये चर - चराचर 
इस शाश्वत श्रृष्टि में न हो तुम अजर - अमर 
पूरब में लाली फैल रहा 
   जाग - जाग ऐ कर्मयोगी
क्यों अब तक है सो रहा ?
 हर सूर्योदय से सूर्यास्त में तेरा जीवन घट रहा 
 क्षण में क्षनाम है क्षण - क्षण हो रहा 
पर सोंच नहीं है तुझे 
काम , क्रोध , लोभ , मोह का जाम डटकर है पी रहा 
कौतुहल का भंडार कण - कण में है भड़ा पड़ा
जब आएँगी अंतिम घड़ियाँ 
बस हाथ मलता रह जाएगा 
जाग - जाग ऐ नौनिहाल देश के कर्णधार 
 दूर कर ये अन्धकार 
वर्ना यह जीवन क्या सबकुछ है बेकार 
कुछ छण तू है विलम्ब 
और तेरा न कोई आलम्ब 
किसी भी तरह होना होगा 
तुझे पूरा स्वाबलंब 
दग्ध रौशनी फैल गई 
तेरी आँखें चौंधिया गई 
पिछर गया है अब तूँ
करते - करते हो जाएगा पस्त 
ऐसा न हो कुछ करने से ही पहले 
हो जाए तेरा अस्त 
देख रहा है तूँ ये सूर्य का अस्त 
पर देख न रहा है खुद का अस्त 
बेकार की बातों में ही रहा तूँ व्यस्त 
बस तूँ देखता ही रहा सूर्योदय से सूर्यास्त तक 
पर न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षण भर तक 
काट अंध दूर कर ये व्यर्थ के बन्ध
प्रकाश कर अपनी जीवन फैला दे सर्वत्र सुरभि सुगंध 
     न मुंह छिपा न करले आँखें बंद 
कर दे शुरू कर दे शुरू भले हो मंद - मंद 
    यही सत्य यही गुरु बंद 
यही छंद यही सत्संग
   बस कर्म ही रह जाएगा तेरे संग
 अच्छा और बुरा बस यही है सारगम्य 
   मिलता है यही बन के प्रारब्ध 
पहले जैसा कर चूका है कर्म 
जाग - जाग करले अपनी पहचान 
क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षीण हो रहा है क्षण - क्षण   
 न किया ! क्यों न किया अब तक ?
बस तूँ देखता रहा सूर्योदय से सूर्यास्त तक 
 पर न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षणभर तक 
अधिक नहीं बस यह जीवन है अरुणोदय से अस्त तक 
है बीत रहा जीवन पल - पल 
पर हुआ न है आभास तुझको अब तक 
चेत - चेत चेतेगा कब तक ?
  बीत रहा बीत गया पल जो था अब तक !
 मुर्गे के कंठ से निकली चीख सुबह की नई
इंसानों के दौड़ में बस हैवानों की भीड़ बढ़ी 
न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षणभर तक 
अधिक नहीं यह जीवन है अरुणोदय से अस्त तक !

सुधीर कुमार ' सवेरा '             ११-०३-१९८४  

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

34. ताले चाभी की मरम्मत की थी दुकान


34-

ताले चाभी की मरम्मत की थी दुकान 
सड़क किनारे मुझे भी था उस से काम
ततछन एक आदमी आया 
लेते हुए अपने लड़के का नाम 
तोड़कर उसने पेटी का कब्ज़ा 
देखो बिगार दिया है मेरा काम 
तत्काल एक सज्जन बोल पड़े 
आदत अपनी बदल दो 
मांगे एक तो उसे दो - दो   
वर्ना यु हीं ताला तोड़ता रहेगा
बाप का नाम पानी में डुबोता रहेगा 
खुद हो कर बर्बाद 
तिजोरी आपका तोड़ता रहेगा 
कैसा ये जमाना आया 
खुद स्वार्थ में डूबा 
बेटे का आदत बिगाड़ा !

सुधीर कुमार ' सवेरा '            ११-१२-१९८३

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

33. आज के मानव को


33-

आज के मानव को 
ये क्या हो गया है उसको 
जब जरुरत पड़ी 
बाप बदल दिया 
आज का मानव 
न जाने कितनों को 
बना लिया है पिता 
जरुरत पड़ी जब 
गदहे को भी कह दिया बाप 
आज का मानव 
सच में बन कर रह गया है 
मात्र गदहे का औलाद 
 ढोता फिर रहा है 
छल , कपट , इर्ष्या , द्वेष 
धोखा और बेईमानी का भार !

सुधीर कुमार ' सवेरा '                 १०-१२-१९८३    

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

32. आज एक बात कहता हूँ कर विचार


32-

आज एक बात कहता हूँ कर विचार 
बढ़ने दो हद से ज्यादा अत्याचार 
मच जाने दो हर ओर हाहाकार 
हो न पायेगा तब तक पूर्ण संहार 
ह्रदय दूषित - दूषित हो चूका है आहार 
मानव ही मानव पर कर रहा है जुल्म औ पापाचार 
ख़त्म हो चूका है 
     माँ - बेटे और भाई बहन का लोकाचार 
शैतानियत का सा ही है अब सबका व्यवहार 
हर ओर है आज सिर्फ तेरी मेरी का व्यापार 
सो चूका है शायद अब मानवता का संसार 
भूल चुके हैं सब 
क्या होता है उपकार परोपकार 
इसे समझते हैं सब 
अब मुर्खता का हार उपहार 
इस पापी मन की नैया में बैठ 
सब सोंच रहे हैं 
हो जाये सब पार बेरापार 
सुनले - सुनले मेरे यार 
मौका मिलेगा न बार - बार 
कर ले खुद से आँखे चार 
अपना और इश्वर का साक्षात्कार 
       दूजा कोई नहीं यहाँ मेरे सरकार
इसी में निहित है 
दुनिया भर का सुख और शांति का भंडार !

सुधीर कुमार ' सवेरा '                ०९-०४-१९८०        

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

31. इंसानों का पेट


31-

इंसानों का पेट  
लेकर दस का 
बना लिया है एक 
कोई और नहीं है वो सेठ 
एक तरफ इंसानों का 
आता ही नजर नहीं पेट 
अंत ही नहीं 
सुख कर है काँटा 
न जाने कितने दिनों का 
है उसका फाका 
कहाँ गया आखिर इनका पेट ?
क्या तुझे नहीं है इन सेठो से भेंट 
काट - काट कर कितनो का पेट 
बन गया है अब ये तोंदू सेठ 
पेट कटता रहा 
तोंद बढ़ता रहा 
भूख बढती गई 
तोंद फूलती गई 
गरीबी बढती गई 
अमीर उठता गया 
आँख धंसती गई 
जवानी बिकती रही 
सांस सिसकती रही 
आह बढती गई 
जिन्दगी ने मौत मांगी 
पर मौत भी भागती रही 
रह - रह कर लिपटती रही 
गर तेरे पास एक चटाई की 
सेज भी हो जायेगी 
तो सेठों को नींद नहीं आएगी 
मखमल के भी गददे
लगेंगे उसको चुभने 
आज इंसान ही देखो 
खटमल बनकर 
लगा है चूसने 
खून का एक बूंद भी पास होगा 
खटमल भी न तेरा साथ छोड़ेगा 
देखने पर तो इंसान लगता नहीं 
लग रहा है केवल ढांचा 
जैसे इंसान गढ़ने का हो 
ब्रह्मा का सांचा 
पृथ्वी भी तेरे लिए है बोझ बनी 
       तेरे जिन्दगी के हर पल में है मौत सनी 
रीढ़ का ही सारा सहारा है शरीर को 
 दे रहा है टेक यही पेट को 
लग रहा हवा के झोंके में ही 
तिनका तूफान का 
तुझ से इस बस्ती में 
किसी को कुछ और नहीं 
बस रिश्ता है इक शैतानी का 
सच्चे शैतान भी भाग चले 
देखा उन्होंने जब 
इंसान को अपने से आगे बढे 
शैतानों को शैतानों से 
होती थी नहीं दुश्मनी 
थी भी तो उन्हें इंसानों से 
देखा उन्होंने जब 
इंसानों को ही इंसान खाते हुए 
काँप गया शैतान भी 
देखा न गया तो भाग पड़े 
अब इंसानों को शैतानों का डर नहीं 
इंसानों को है डर तो इंसानों से ही 
पहले जैसी अब वो बात नहीं 
राम कृष्ण जैसे अवतारी नहीं 
हैं चूँकि अब वो शैतान नहीं 
आयेंगे भी तो 
इंसानों के बिच उन्हें पहचान नहीं 
भेड़िये की खाल और 
सियारों की आवाज नहीं 
यहाँ आते इसलिए नहीं 
जानते हैं अब गलेगी अब दाल नहीं 
बहन की इज्जत भाई 
माँ का इज्जत बेटा 
लुट रहा है यहाँ देखो 
एक दुसरे को खुल्लम - खुल्ला 
पैसे की है पूछ यहाँ 
इज्जत और आदर्श की बात नहीं 
विवेक और विचार की फिर बात कहाँ 
परोपकार को समझा जाता है बेबकूफी 
इससे बढ़कर बड़ी मुर्खता 
  यहाँ नहीं दूजा समझना 
पित रहा हूँ बिल्डिंग यहाँ एक 
क्यों दूँ तुझको कौड़ी एक 
जाते हो या दूँ उठवाकर फ़ेंक 
प्यार कहते हो तुम 
दो शरीर के भोग में 
लेने जाते हो जिसे रजनीश के योग में 
पैसा होता है क्या ?
तुम जानते नहीं 
भटक गये हो इतना 
  कुछ भी समझ पाते नहीं 
पश्चिम का रंग चढ़ा है इतना 
की अपनी संस्कृति भी  
अब समझ पाते नहीं 
गिलास तेरा लबालब है जाम से 
भर सकता नहीं अब वो गंगाजल से 
भरना भी चाहोगे तो 
लगेंगे समय बहुत 
डालना पड़ेगा गंगाजल तब तक 
उलीच - उलीच कर 
हो न जाता बाहर जाम जब तक 
इससे ज्यादा नहीं कहूँगा 
तुमसे ज्यादा अकलमंद नहीं बनूँगा 
        अपनी इस मुर्खता पर मुझको गर्व है 
इस नादानी पर मुझको न शर्म है
  तुम दोगे प्रसाद 
होगा वो मीठा उपहार 
मैं जानता हूँ 
होगा वो गालियों का बौछार 
  सत्य कहता हूँ 
मैं भी समझता हूँ 
गालियों के सिवा तुझे कुछ आता है  ?
     कह दो गलत कहता हूँ 
गाली भी सुन के मैं खुश होऊंगा पूरा 
आखिर तेरे पास जो ही था 
तुमने तो दिया वो सारा 
हुए मेरे लिए तुम्ही तो त्यागी 
मैं हूँ इसका अभिलाषी 
पर इस में भी कंजूसी न करना 
वर्ना समझूंगा अपने को हतभागी ?
      
  सुधीर कुमार ' सवेरा '                    ०२-०४-१९८०

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

30. सपनो का महल बनाया कई बार


30-

सपनो का महल बनाया कई बार 
बनते - बनते टूट गया हर बार 
हारा हूँ न हिम्मत अपना 
चाहे सजा दे कितना भी ज़माना 
मैं देखता रहूँगा सपना
क्यों छोड़ूं उस छण का आनंद 
कर लूँ क्यों उससे आँखे बंद 
चाहे हो सके न वो अपना 
मैं देखता रहूँगा सपना   
सपनो का महल बनाया कई बार 
बनते - बनते टूट गया हर बार 
वो सपने हैं तो सपने 
फिर भी दिल को लगते 
सच्चे , अच्छे , अपने !

सुधीर कुमार ' सवेरा '          31-०३-१९८० 

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

29. ऐ कवि बंद करो ये कविता


29-

ऐ कवि बंद करो ये कविता
अच्छा हो गर शुरू करो 
रामायण या गीता 
श्वर तेरे छंद बद्ध नहीं होते 
    छंद तेरे गीत बद्ध नहीं होते 
ठीक से कोई जी नहीं पाता
 पता है तेरे कारण आज क्या - क्या होता ?
तेरी बातें जमाने के साथ चलती 
ज़माना तेरी बातों से चल सकता 
पर तेरी आज की फुहरता के कारण 
कोई भी रस , रूप और गंध की 
परिभाषा भी नहीं समझता 
अब तूं ही बता 
कैसे समझा पायेगा 
अपनी भाव और भंगिमा को 
अपने विचार और अभिलाषा को 
अपने व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति को 
ऐसा न हो 
आने वाले कल को 
मिले न वो कड़ी 
जहां से टूटी थी इतिहास की लड़ी 
ऐ कवि बंद करो ये कविता 
अच्छा हो गर शुरू करो रामायण या गीता !


सुधीर कुमार ' सवेरा '            २९-०३-१९८०

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

28. रूप , रस और गंध का


28-

रूप , रस और गंध का 
है आधिपत्य हर जीवों पर 
हम मानव का कथन ही क्या 
इन तीनो की ओर
हर कोई खिंचा चला जाता 
होगा क्या भविष्य सोंच नहीं   
अनायास ही उस ओर 
अपने को आकर्षित है पाता
शमा के रूप पर परवाना है देखो कैसा फिदा 
भौंरा अपने बंदिपन से बेखबर
देखो जा रहा कमल के अन्दर 
रूप , रस का ऐसा ही है आकर्षण 
कारण जिसके वो कर जाता 
    सहर्ष ही मृत्यु का आलिंगन 
 तभी पाता सुख चैन 
दे देता जब जीवन भेंट 
रस की खबर मिल जाती है चींटी को 
  पर देखो तो देख रहा 
समझ रहा लिपट - लिपट कर 
मृत्यु का आलिंगन कर रहा 
गंध की भी है 
देखो कैसी तृष्णा 
मृग बन - बन भटक रहा 
गंध के पीछे दौड़ रहा 
सुध नहीं है उसे 
   खोजे समझे है गंध कहाँ ?
क्या समझा पायेगा कोई उसे ?
है उसी तरह प्रेम 
हम में यहाँ वहां 
खोजोगे तो पावोगे 
भ्रमोगे तो भटकोगे 
है हर जिव में जहां - तहां 
  है सुख कहाँ ? 
किसी वस्तु विशेष में नहीं 
तो पाओगे कहाँ ?
 सुख का करो साक्षात्कार 
अनुभव में है वो यहाँ - वहां 
 तुम जानते हो अपने को 
क्या पहचानते हो अपने को  ?
क्या तुम एक हो ?
एक हो कर तुम दो हो 
 आसुरी और इश्वरी 
ये दोनों पहलु है तुम में 
उठते हैं दोनों ही विचार 
तुम्हारे ही मन में 
करो विचार उसका अपने बुद्धि से   
उलटो इतिहास विचार करके 
हुआ था क्या ?
उनको ये आचार करके 
हो जाएगा तब तुमको 
अछे और बुरे का ज्ञान 
अपने और दूसरों का मान 
प्यार और सुख का भान
तुम कुछ गलत करते हो 
उसका कारण अनजाने में भी तुम हो   
प्रथम अपने को जानो 
मन , बुद्धि और आत्मा क्या है ?  
    उनको समझो और पहचानो 
मन का कहना 
बुद्धि की कसौटी पर तौलो 
बुद्धि का कहना 
आत्मा से जानो 
अब बनी बात जो 
    उसको आत्मसात करो 
कभी नहीं दुःख यार पाओगे 
कर विचार इन बातों पे 
रहो उन्मुक्त विहार करते 
अपनी ये सेवा जान 
करता हूँ अब पूर्णविराम !

 
 सुधीर कुमार ' सवेरा '          १४-०३-१९८० 

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

27. कैसे कह दूँ माता


27-

कैसे कह दूँ माता 
बनती हो हर घरी कुमाता 
कैसे कह दूँ बहना 
हर पल बनती हो सुन्दर छलना 
बनते हो तुम दोस्त    
कह देता हूँ बस एक ठोस 
पीठ पीछे होकर भोंकते हो छुरा 
जानते नहीं हो क्या 
शब्द का न है कोई नाता 
कर्म से ही हैं सब रिश्ते 
कर्म का ही है सब नाता 
एक बात और तुम जान लो 
 खुद को तुम पहचान लो 
प्यार ही यहाँ हर कोई को भाता 
कैसे कह दूँ माता 
बनती हो हर छण कुमाता !

सुधीर कुमार ' सवेरा '               १९-०४-१९८०       

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

26. ऐसे समय में


26-

ऐसे समय में 
हे ईश तेरा ही सहारा है 
दे के थोड़ी धैर्य तूं
लगा देता सबका किनारा है 
धैर्य ही है ईश्वर
धैर्य ही है भाई 
कर्म को तुम समझ 
उसको बना लो साथी 
बादल के पीछे में 
सूर्य रत है जैसे कर्म में 
ऐसे ही गर लगे रहे तुम प्रयत्न में 
कसे नहीं मिलेगी 
तुझको भला सफलता 
हार मानेगा तुझसे 
तब सारी विफलता 
ऐसी कोई बात नहीं है 
जिसको तुम चाहो 
और कर न पाओ
बस एक धैर्य के साथ 
कर्म में लगे रहने की 
है सिर्फ आवश्यकता ।
   
   सुधीर कुमार ' सवेरा '             ०९-०५-१९८०

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

25. शांत बहुत शांत


25-
 शांत बहुत शांत 
कहीं दूर बेहद एकांत 
चल पथिक चल दे वहीं
छाई हो जहाँ निस्तब्धता 
गुफाओं कंदराओं से लौटकर 
आती आवाज 
मौन अति गंभीर 
सागर की भीषण गर्जना 
  मात्र यही सिखलायेंगी तुझको मानवता 
   चल पथिक चल दे वहीँ 
छाई हो जहाँ पूरी निस्तब्धता 
नहीं संकुचित नहीं कृपणता 
रहस्यों की है वहीँ व्यापकता 
  छाई हो जहाँ घोर निस्तब्धता 
क्यों सोंच वृथा है करता 
वहीं मिलेगी वहीं मिलेगी 
तुझको तेरी वास्तविकता 
वहीं बुझेगी - वहीं बुझेगी 
तेरी चीर प्यास वहीं बुझेगी  
प्रकृति का प्यार मिलेगा 
वहीं तुझको तेरा राज मिलेगा 
ले - ले -ले - ले जाकर 
अपने जीवन की सार्थकता ।

सुधीर कुमार ' सवेरा '                  ३०-०५-१९८०  

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

24. कंही धूप कंही छाँव


24-

कंही धूप कंही छाँव 
कहीं दौर कहीं ठांव 
ये है गाँव s  s  s  s  s  s 
कहीं  कोठा कहीं फूस 
  कहीं पहुँच कहीं घूस
कहीं धूप ..............
जितने ही अपने उतने ही दूर 
जैसे गग्गन धरा से दूर 
मिलती कहीं नजर आती बहुत दूर 
कहीं मछली कहीं जाल 
कहीं ढोल कहीं ताल 
कहीं नदिया कहीं घाट 
   कहीं नाव कहीं पाल 
कहीं धूप ..................
कहीं ऊँच कहीं नीच 
 ठौर नहीं है इन दोनों के बिच 
कहीं घुर कहीं ताव 
कहीं झूठ कहीं सांच 
कहीं भूख कहीं नाच 
कहीं कोठी कहीं चूल्हा भी फूटी 
कहीं हुआ कहीं कांव 
कहीं धूप कहीं छाँव ।

सुधीर कुमार ' सवेरा '                    १२-०६-१९८० 

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

23. धुंध भरी धुप


23-

धुंध भरी धुप 
नाव में भरी पानी 
चप्पू भी हो चूका है चुप 
जिन्दगी की यही है कहानी 
हर दर्द के पीछे सुख जाता है छुप 
मिलना मिल कर बिछुरना 
जिन्दगी का यही है सब कुछ 
मिलना तो हँसना बिछुरन में रोना 
यूँ ही जीवन  का दिया जाता है बुझ
दोनों हालत में कह - कहे लगाना ही 
है सबसे बड़ी सूझ 
यही बात जिंदगी हम से है कहती 
नीरस जिन्दगी में 
सरसता है बिलकुल तुच्छ
विहंगम न रखता है मायने 
     तुम हो तभी कुछ गर हो तुम्हारी पूछ  
हम हों खड़े तुम हो सामने 
जिन्दगी तभी समझ आएगी कुछ न कुछ । 

सुधीर कुमार ' सवेरा '          ११-०६-१९८०      

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

22. अरे वो इश्वर


22-

अरे वो इश्वर 
 मुझे प्यार आता है तुम पर 
तुम्हारे सुधर संयोजन पर 
तूं नहीं मेरी किस्मत ही मुझसे है रूठी
या मैंने ही शायद 
खुद को भुला दिया 
भोजन नहीं तो भूख नहीं 
आराम नहीं तो ऐश्वर्य नहीं 
समाधान नहीं तो चाहत नहीं 
उन्नति नहीं तो बुद्धि नहीं 
मैं चाहत का अधिकारी ही नहीं 
आज्ञां समझ कर जिए जा रहा हूँ 
तेरे दंड राशि का 
जब अपव्य हो जाएगा 
फिर खोजेगा मुझ में ही तूं 
अपने स्व का पहचान 
बस धैर्य इतनी दिए रहो 
मरते दम तक जिए रहूँ 
साध तुम्हारी पूरी करने को !

सुधीर कुमार ' सवेरा '           १८ -११-१९८० 

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

21. अगल - बगल नहीं - नहीं चारों तरफ



21-

अगल - बगल नहीं - नहीं चारों तरफ 
  फ़ेंक रहा है वो पत्थर 
बिच सड़क पर खड़ा होकर 
लोग आ रहे हैं जा रहे हैं 
लोग डर गये हैं 
  गुम शुम देख रहे हैं 
किसी बच्चे ने उसे पत्थर है मारा 
देखो - देखो हंसने लगा 
चुप चुप वो रोने लगा 
वस्त्र हैं तन पर 
पर नहीं हैं 
वो अंग हैं खुले हुये
देखो - देखो हम सा ही है वो 
पर पागल है कहलाता 
क्या उसे दर्द नहीं होता 
होगी तो उसकी भी कोई माँ 
    कभी वह भी तो था दूध पीता 
हो प्रकृति के वशीभूत 
है हम से अलग - थलग पड़ा 
  आहटें उसकेलिए थम गई हैं 
भावनाएं उसकी बहक गई हैं !

सुधीर कुमार ' सवेरा '               ०७-०३-१९८० 

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

20. गाँव से भागा शहर की ओर


20-

गाँव से भागा शहर की ओर
सुना बहुत है उधर आजादी और मौज 
इस वीरानी में सुस्ती सी छा रही थी 
विरानेपन से मन उब सी गई थी 
बचपन के ओ अच्छे - अच्छे दृश्यावलियाँ 
उन पर भी छा गई थी विरानियाँ 
जिन्दगी एक सी बातों से 
उब सी गई थी 
मन कुछ बदलाव देखने को 
मचल रही थी 
द्रुत गति से दौड़ती गाड़ियां  
गग्गन चुम्बी ओ इमारतें 
     चौड़ी - चौड़ी सड़कों को
 चाहती हैं ये पावें नापने को 
दो मंजिल ऊँची बसें 
धुंआ उगलता शहर
देखने को बड़ा चाहता था मन 
सब कुछ देखा 
स्वर्ग सा शहर 
परियों का नगर 
पर वो न देखा वो न पाया 
    जो मिलती थी वहां के बड़े बच्चों से 
 वहां की धरती से 
प्यार की वो सोंधी महक !


सुधीर कुमार ' सवेरा '               ०६-०३-१९८०

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

19. कांटे , पतझर , शीशम , गुलाब ,


19-

कांटे ,
पतझर ,
शीशम ,
गुलाब ,
सभी हैं वक्त के साथ 
वाह रे वक्त तेरा जबाब नहीं 
तिल को तार नहीं 
राई को रस्सी नहीं 
बूंद को सागर नहीं 
किया तो क्या किया ?
याद रखूंगा मैं भी तुझे 
    क्या - क्या न तुने किया 
मन न भड़ा तो पेट पीठ एक कराया 
अब चूस लिया तुने 
छोड़ा क्या जो छोड़ा ओ भी ले 
उफ न करूँगा आह न भरूँगा 
भर जाए तेरा मन 
बस इतनी दुआ 
मैं रब से करूँगा ! 

सुधीर कुमार ' सवेरा '            ०३-०३-१९८०    

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

18. हर्षित हूँ हर्षित है


18-

हर्षित हूँ हर्षित है 
यह तप भूमि भारत वर्ष 
गर्वित हूँ गर्वित है 
यह वसुंधरा एवं श्रमिक वर्ग 
टूट चुकी लोहे की कड़ी 
मिट चुकी तानाशाही वर्ग 
सफल हुई श्रम हमारी 
बन गई मिटटी पर्वत 
श्रमिक ही हैं श्रम के सरताज 
तुम ही हो उत्पादन के आधार 
लाऊं कहाँ से शब्द जाल 
अर्पण करता हूँ ह्रदय हार 
कर लो स्वीकार ये प्रेम उपहार 
मजदुर एकता जिंदाबाद 
वर्तमान है तेरे साथ
भविष्य होंगे तेरे साथ 
तेरे साथ होगा सदा 
अपनों का असीम प्यार ! 
        
सुधीर कुमार ' सवेरा '                 ०४-१०-१९८०
      

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

17. हम बढ़ते जा रहे हैं


17-

हम बढ़ते जा रहे हैं 
 एक दूसरी गुलामी में
जकड़ते जा रहे हैं 
हर बार की खुशामद के बाद 
 हम सिर्फ आह भरते जा रहे हैं 
पर लोग इस गुलामी के दिवार को 
बेहद मजबूत बनाते जा रहे हैं 
होगी एक बड़ी खुनी क्रांति 
पलट जायेगी तब सारी बात पुरानी 
 न रह जाएगा तब मैं और तुम 
बस रहेंगे केवल हम ही हम 
न कोई आश्रित कहलायेगा 
  न कोई निराश्रित कहलायेगा 
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय 
के भाव से तब 
सभी जी पायेंगे !

सुधीर कुमार ' सवेरा '           ११-०७-१९८०             

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

16. जो है गन्दी गली के भीतर


16-

जो है गन्दी गली के भीतर 
 खबर नहीं जिसकी लेता मेहतर 
उनके दम पर खड़े रहें 
आदर से बातें करें 
देना भोट एक है काम 
उस दिन कहना मेरा नाम 
भाई यह रटे रहना 
भूलेंगे नहीं रहते प्राण 
ओ हैं आदमी कितने भले 
कागज़ की एक टुकड़ी के लिए 
आये हैं ओ हाथ फैलाने 
पांच साल के बाद कुछ याद दिलाने !

सुधीर कुमार ' सवेरा '          २६-०१-१९८० 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

15. जागो मेरे लाल जागो


15-

जागो मेरे लाल जागो
छोरो तुम शहर की ठाठ 
पकड़ो तुम ग्राम की बाट
करो तुम दिनों का उद्धार 
जागो मेरे लाल जागो 
मेरे पुत्र बलिदान हुए 
निज रक्तों का दान किये 
निज यौवन को वार दिये
ममता को फिर तुम छोड़ो
  जागो मेरे लाल जागो 
रो रहा दिन दयाल 
करता है क्रूर - क्रंदन पुकार 
 विदीर्ण होती छाती हमार 
जावो सेवक जुट परो
जागो मेरे लाल जागो 
मेरे शब्दों पे ध्यान धरो 
दलित किसानो का उद्धार करो 
निज जीवन के शोषित लोगों पर 
   सेवा अमृत बरसाओ 
जागो मेरे लाल जागो

सुधीर कुमार ' सवेरा '               २८-०१-१९८४