35-
क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षण भर तक
अधिक नहीं बस अरुणोदय से अस्त तक
है बीत रहा यह जीवन पल - पल
है हुआ आभास नहीं तुझको अब तक
नित नविन नूतन ये चर - चराचर
इस शाश्वत श्रृष्टि में न हो तुम अजर - अमर
पूरब में लाली फैल रहा
जाग - जाग ऐ कर्मयोगी
क्यों अब तक है सो रहा ?
हर सूर्योदय से सूर्यास्त में तेरा जीवन घट रहा
क्षण में क्षनाम है क्षण - क्षण हो रहा
पर सोंच नहीं है तुझे
काम , क्रोध , लोभ , मोह का जाम डटकर है पी रहा
कौतुहल का भंडार कण - कण में है भड़ा पड़ा
जब आएँगी अंतिम घड़ियाँ
बस हाथ मलता रह जाएगा
जाग - जाग ऐ नौनिहाल देश के कर्णधार
दूर कर ये अन्धकार
वर्ना यह जीवन क्या सबकुछ है बेकार
कुछ छण तू है विलम्ब
और तेरा न कोई आलम्ब
किसी भी तरह होना होगा
तुझे पूरा स्वाबलंब
दग्ध रौशनी फैल गई
तेरी आँखें चौंधिया गई
पिछर गया है अब तूँ
करते - करते हो जाएगा पस्त
ऐसा न हो कुछ करने से ही पहले
हो जाए तेरा अस्त
देख रहा है तूँ ये सूर्य का अस्त
पर देख न रहा है खुद का अस्त
बेकार की बातों में ही रहा तूँ व्यस्त
बस तूँ देखता ही रहा सूर्योदय से सूर्यास्त तक
पर न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षण भर तक
काट अंध दूर कर ये व्यर्थ के बन्ध
प्रकाश कर अपनी जीवन फैला दे सर्वत्र सुरभि सुगंध
न मुंह छिपा न करले आँखें बंद
कर दे शुरू कर दे शुरू भले हो मंद - मंद
यही सत्य यही गुरु बंद
यही छंद यही सत्संग
बस कर्म ही रह जाएगा तेरे संग
अच्छा और बुरा बस यही है सारगम्य
मिलता है यही बन के प्रारब्ध
पहले जैसा कर चूका है कर्म
जाग - जाग करले अपनी पहचान
क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षीण हो रहा है क्षण - क्षण
न किया ! क्यों न किया अब तक ?
बस तूँ देखता रहा सूर्योदय से सूर्यास्त तक
पर न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षणभर तक
अधिक नहीं बस यह जीवन है अरुणोदय से अस्त तक
है बीत रहा जीवन पल - पल
पर हुआ न है आभास तुझको अब तक
चेत - चेत चेतेगा कब तक ?
बीत रहा बीत गया पल जो था अब तक !
मुर्गे के कंठ से निकली चीख सुबह की नई
इंसानों के दौड़ में बस हैवानों की भीड़ बढ़ी
न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षणभर तक
अधिक नहीं यह जीवन है अरुणोदय से अस्त तक !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ११-०३-१९८४
क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षण भर तक
अधिक नहीं बस अरुणोदय से अस्त तक
है बीत रहा यह जीवन पल - पल
है हुआ आभास नहीं तुझको अब तक
नित नविन नूतन ये चर - चराचर
इस शाश्वत श्रृष्टि में न हो तुम अजर - अमर
पूरब में लाली फैल रहा
जाग - जाग ऐ कर्मयोगी
क्यों अब तक है सो रहा ?
हर सूर्योदय से सूर्यास्त में तेरा जीवन घट रहा
क्षण में क्षनाम है क्षण - क्षण हो रहा
पर सोंच नहीं है तुझे
काम , क्रोध , लोभ , मोह का जाम डटकर है पी रहा
कौतुहल का भंडार कण - कण में है भड़ा पड़ा
जब आएँगी अंतिम घड़ियाँ
बस हाथ मलता रह जाएगा
जाग - जाग ऐ नौनिहाल देश के कर्णधार
दूर कर ये अन्धकार
वर्ना यह जीवन क्या सबकुछ है बेकार
कुछ छण तू है विलम्ब
और तेरा न कोई आलम्ब
किसी भी तरह होना होगा
तुझे पूरा स्वाबलंब
दग्ध रौशनी फैल गई
तेरी आँखें चौंधिया गई
पिछर गया है अब तूँ
करते - करते हो जाएगा पस्त
ऐसा न हो कुछ करने से ही पहले
हो जाए तेरा अस्त
देख रहा है तूँ ये सूर्य का अस्त
पर देख न रहा है खुद का अस्त
बेकार की बातों में ही रहा तूँ व्यस्त
बस तूँ देखता ही रहा सूर्योदय से सूर्यास्त तक
पर न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षण भर तक
काट अंध दूर कर ये व्यर्थ के बन्ध
प्रकाश कर अपनी जीवन फैला दे सर्वत्र सुरभि सुगंध
न मुंह छिपा न करले आँखें बंद
कर दे शुरू कर दे शुरू भले हो मंद - मंद
यही सत्य यही गुरु बंद
यही छंद यही सत्संग
बस कर्म ही रह जाएगा तेरे संग
अच्छा और बुरा बस यही है सारगम्य
मिलता है यही बन के प्रारब्ध
पहले जैसा कर चूका है कर्म
जाग - जाग करले अपनी पहचान
क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षीण हो रहा है क्षण - क्षण
न किया ! क्यों न किया अब तक ?
बस तूँ देखता रहा सूर्योदय से सूर्यास्त तक
पर न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षणभर तक
अधिक नहीं बस यह जीवन है अरुणोदय से अस्त तक
है बीत रहा जीवन पल - पल
पर हुआ न है आभास तुझको अब तक
चेत - चेत चेतेगा कब तक ?
बीत रहा बीत गया पल जो था अब तक !
मुर्गे के कंठ से निकली चीख सुबह की नई
इंसानों के दौड़ में बस हैवानों की भीड़ बढ़ी
न देखा क्षणभंगुर क्षणिक यह जीवन क्षणभर तक
अधिक नहीं यह जीवन है अरुणोदय से अस्त तक !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' ११-०३-१९८४
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें