102 .
दो टुक कलेजा हो जाता
जब याद मुझे वो आता
कितना अपनापन था
जब आँसू मेरे पोछा करती थी
मेरे जिस्म के एक खरोंच को भी
वो जब सह नहीं पाते थे
एक दिन की दाढ़ी बढ़ जाने से
आसमान को सिर पर उठा लेते थे
आज वो वहीं हैं
चेहरे पे झाड़ - झंखाड़ उग आये हैं
तिल भर उन्हें अफसोस भी नहीं है
काश अगर प्यार इसी को कहते हैं
मैं क्यों न समझ पाता हूँ
खिलौने से खेलना था उनको
जी भरने के बाद
क्या रह गया मुझमें
तिल - तिल कर क्यों मर रहा हूँ
क्यों नहीं एक बार में मर पाता हूँ
क्या कसक इसकी भी है उनको
जो दिल न होता मुझको
कोई गम न होता खुद को
हसीनों का यही दस्तूर है
ले कर आशिकों की जान
जश्ने महफिल मनाया करते हैं !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 02-02-1984
दो टुक कलेजा हो जाता
जब याद मुझे वो आता
कितना अपनापन था
जब आँसू मेरे पोछा करती थी
मेरे जिस्म के एक खरोंच को भी
वो जब सह नहीं पाते थे
एक दिन की दाढ़ी बढ़ जाने से
आसमान को सिर पर उठा लेते थे
आज वो वहीं हैं
चेहरे पे झाड़ - झंखाड़ उग आये हैं
तिल भर उन्हें अफसोस भी नहीं है
काश अगर प्यार इसी को कहते हैं
मैं क्यों न समझ पाता हूँ
खिलौने से खेलना था उनको
जी भरने के बाद
क्या रह गया मुझमें
तिल - तिल कर क्यों मर रहा हूँ
क्यों नहीं एक बार में मर पाता हूँ
क्या कसक इसकी भी है उनको
जो दिल न होता मुझको
कोई गम न होता खुद को
हसीनों का यही दस्तूर है
ले कर आशिकों की जान
जश्ने महफिल मनाया करते हैं !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 02-02-1984
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