91.
हल्की सी भीड़ में भी
वो नहीं मिलते
ख्यालों के चट्टान से
हम अपना ही सर फोड़ते
उनके बून्द दरश के
मात्र हम एक अभिलाषी
बस बाट एक हम उनके ही जोहते
खोकर भी सबकुछ
पता नहीं क्यों हम उनको नहीं भूलते
सामने रहकर भी
दृश्य सारा छुप जाता है
बस एक परिचित आकृति ही
हर पल हम ढूंढते
और कौन , बस एक जग में
जिसको देकर सर्वश्व
एक रेत कण भी न पा सका
समुद्र में गोता लगाकर
एक सीप भी खाली ही पाया
उन्होंने पूर्ण रूप से मुझको छोड़ा
जानकर यह सब कुछ
यादें क्यों नहीं मुझे छोड़ती
वे रूठ गये
हम खुद से टूट गये
आँखें थक गयी
बाट सुनी - सुनी देखते - देखते !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 11-02-1984
हल्की सी भीड़ में भी
वो नहीं मिलते
ख्यालों के चट्टान से
हम अपना ही सर फोड़ते
उनके बून्द दरश के
मात्र हम एक अभिलाषी
बस बाट एक हम उनके ही जोहते
खोकर भी सबकुछ
पता नहीं क्यों हम उनको नहीं भूलते
सामने रहकर भी
दृश्य सारा छुप जाता है
बस एक परिचित आकृति ही
हर पल हम ढूंढते
और कौन , बस एक जग में
जिसको देकर सर्वश्व
एक रेत कण भी न पा सका
समुद्र में गोता लगाकर
एक सीप भी खाली ही पाया
उन्होंने पूर्ण रूप से मुझको छोड़ा
जानकर यह सब कुछ
यादें क्यों नहीं मुझे छोड़ती
वे रूठ गये
हम खुद से टूट गये
आँखें थक गयी
बाट सुनी - सुनी देखते - देखते !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 11-02-1984
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