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मैं ढूंढता हूँ एक खोया हुआ सपना
चाहता हूँ पकड़ना बिता हुआ कल
अपनी ही छाया को ढूंढता हूँ
जग को क्या दोष दूँ
अपना ही हमसफ़र
साथ छोड़ कर चला गया
दुःख की बगिया में
अकेला गया मुझको छोड़
अपने मन का जो था मीत
मन को जाता है
बार - बार कचोट
उसका वो निष्कपट स्नेह
जिसमे गया था
मैं सुध - बुध खो
उस बीते पल को
दीवाने की तरह खोज रहा हूँ
विरह वेदना से
आत्मा जल रही है
किस्मत मुझे अकेला
जग में छोड़ गयी
पाऊं कंहा उस विधाता को ?
कहूँ क्या अपने ही प्रिय से ?
जो दिल तोड़ गयी
कर बेसहारा
मुझको छोड़ गयी
मुझ दीवाने का
मौत के सिवा और क्या ?
मौत भी मुझे
मेरे प्रिय की तरह
बेवफा हो गयी
ढूढुं जिसको हर पल
जो न वो मिले
तो कैसे दिल को
शकुन मिले
कुछ भी अच्छा नहीं लगता
सिवा तेरे ख्यालों के !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 16-09-1983
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