92.
देखो !
हाँ
यही है
वो
जिसे तुम
मान देतो हो
जिसने
जीवन में मेरे
गरल दिया है घोल
विचारों से
मेरे
जिसने
बलात्कार किया है
कहते हो
उसे अबला
वही है
कहीं काली कहीं दुर्गा
ना जाने क्यों
उसने ही
मेरे साथ
किया है घात
अपनापन
अब उनकी
मज़बूरी है
जिसने
मेरे साथ
किया है प्यार
समाज ने
जिसका बड़ा
सम्मान किया है
हाँ
यही है
वो
देखो !
राख पे मेरे
अपना
नया संसार बनाया है
हो सकता है
हम कहीं न होंगे
पर
आप वहीं होंगे
जहाँ
हम न होंगे
जिन्दगी एक ख्वाब है
ख्वाबों में
कितने ख्वाब आते जाते हैं
जिन्दगी ?
एक बिखराव है
कितने पड़ाव
आते हैं जाते हैं
जब मशगुल था मैं
अपनी ही दास्तान में
तब किसे पता था
कहानी अपनी
यूँ ही समाप्त होगी
जुल्म की दीवार
उठती गयी
भीड़ की रफ़्तार
बढ़ती गयी
ठोकर ही मिलेगी
तब कहा किसने
शहनाई के शोर में
डोली किसी की सज गयी
आँगन में मेरे
बहार आयी थी
अर्थी ही मेरी उठ गयी
रेल की पटरी
मैंने ही बिछाई
गाड़ी जिस पर खड़ी थी
खुलने से पहले ही
भैकुम हो गयी
तारों को सजाकर
बल्ब लगाया था मैंने
बटन दाबते ही
बिजली गुल हो गयी
घुमड़दार पहाड़ियों में
एक झील था मैं
ना जाने कहाँ से
एक चट्टान
गढ़े में गिर गयी
बागों से
एक कली
उठाया था मैंने
मैं गिर गया
कली खिल गयी
सुरभि सुगंध फैलाता हुआ
रस इक्कठा किया था मैंने
खाली घर रह गया
रस चूस ले गयी
घून जिसका
हंट।या था मैंने
जीना जिसे सिखाया था मैंने
बेमौत मुझे ही मारकर
वो चल दी
धोखा गर किसी को
दिया था मैंने
वो खुद मैं ही था
प्यार जिसको दिया था
वो ही
गैर समझकर चल दी
बहार आने से पहले
जिन्दगी जिसकी ऊसर थी
अमृत से उसको
सींचा हमने
चेतना के आते ही
अंगूठा दिखा कर चल दी
लब को सिया
दिल को सिया
टाट का पैबंद
लगा - लगा कर
साँसों को सिया
अब वही
आसमान फाड़कर चल दी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 05-02-1984
9-10 pm से 2-12 am
देखो !
हाँ
यही है
वो
जिसे तुम
मान देतो हो
जिसने
जीवन में मेरे
गरल दिया है घोल
विचारों से
मेरे
जिसने
बलात्कार किया है
कहते हो
उसे अबला
वही है
कहीं काली कहीं दुर्गा
ना जाने क्यों
उसने ही
मेरे साथ
किया है घात
अपनापन
अब उनकी
मज़बूरी है
जिसने
मेरे साथ
किया है प्यार
समाज ने
जिसका बड़ा
सम्मान किया है
हाँ
यही है
वो
देखो !
राख पे मेरे
अपना
नया संसार बनाया है
हो सकता है
हम कहीं न होंगे
पर
आप वहीं होंगे
जहाँ
हम न होंगे
जिन्दगी एक ख्वाब है
ख्वाबों में
कितने ख्वाब आते जाते हैं
जिन्दगी ?
एक बिखराव है
कितने पड़ाव
आते हैं जाते हैं
जब मशगुल था मैं
अपनी ही दास्तान में
तब किसे पता था
कहानी अपनी
यूँ ही समाप्त होगी
जुल्म की दीवार
उठती गयी
भीड़ की रफ़्तार
बढ़ती गयी
ठोकर ही मिलेगी
तब कहा किसने
शहनाई के शोर में
डोली किसी की सज गयी
आँगन में मेरे
बहार आयी थी
अर्थी ही मेरी उठ गयी
रेल की पटरी
मैंने ही बिछाई
गाड़ी जिस पर खड़ी थी
खुलने से पहले ही
भैकुम हो गयी
तारों को सजाकर
बल्ब लगाया था मैंने
बटन दाबते ही
बिजली गुल हो गयी
घुमड़दार पहाड़ियों में
एक झील था मैं
ना जाने कहाँ से
एक चट्टान
गढ़े में गिर गयी
बागों से
एक कली
उठाया था मैंने
मैं गिर गया
कली खिल गयी
सुरभि सुगंध फैलाता हुआ
रस इक्कठा किया था मैंने
खाली घर रह गया
रस चूस ले गयी
घून जिसका
हंट।या था मैंने
जीना जिसे सिखाया था मैंने
बेमौत मुझे ही मारकर
वो चल दी
धोखा गर किसी को
दिया था मैंने
वो खुद मैं ही था
प्यार जिसको दिया था
वो ही
गैर समझकर चल दी
बहार आने से पहले
जिन्दगी जिसकी ऊसर थी
अमृत से उसको
सींचा हमने
चेतना के आते ही
अंगूठा दिखा कर चल दी
लब को सिया
दिल को सिया
टाट का पैबंद
लगा - लगा कर
साँसों को सिया
अब वही
आसमान फाड़कर चल दी !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 05-02-1984
9-10 pm से 2-12 am
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