89.
सुबह अलसायी सी होती है
दोपहर सुस्ती भरी
शाम ललचायी सी होती है
रात शरमायी सी होती है
इंतजार तेरा जिन्दगी को है जलाता
बहारों के मौसम में है पतझर का साया
फुर्सत के वक्त में आँखें हैं रोती
तन्हाई का ये सफर
यूँ न ख़त्म होगा
ऐ जाने जिगर
तन्हा हूँ मैं तन्हा ये सफ़र
राह तेरी ही ढूंढे ऐ बिछुरे हम सफ़र
जलवा तेरा वो जो देखा हमने
राह हम अपनी ही भूले
अमराईयों के तेरे वो छाँव हम न भूले
मुस्कान से बोझिल तेरे वो लब
शर्म से झुकी तेरी वो पलकें
वक्त इतने गुजरने पर भी
आज तक हम न वो भूले
दिल मेरा शीशे का
तेरे पत्थर जिगर पे फूटे
चुम्बन तेरे वो मेरे चेहरे न भूले
मेरे जलपात्र से हाथ तुमने अपने धोये
मेरे रुमाल से हाथ तुमने अपना पोंछा
तुमने कहा कुछ लिया ही न था
हाथ तुम्हारा साफ था
मुँह पर कोई दाग न था !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 15-02-1984
सुबह अलसायी सी होती है
दोपहर सुस्ती भरी
शाम ललचायी सी होती है
रात शरमायी सी होती है
इंतजार तेरा जिन्दगी को है जलाता
बहारों के मौसम में है पतझर का साया
फुर्सत के वक्त में आँखें हैं रोती
तन्हाई का ये सफर
यूँ न ख़त्म होगा
ऐ जाने जिगर
तन्हा हूँ मैं तन्हा ये सफ़र
राह तेरी ही ढूंढे ऐ बिछुरे हम सफ़र
जलवा तेरा वो जो देखा हमने
राह हम अपनी ही भूले
अमराईयों के तेरे वो छाँव हम न भूले
मुस्कान से बोझिल तेरे वो लब
शर्म से झुकी तेरी वो पलकें
वक्त इतने गुजरने पर भी
आज तक हम न वो भूले
दिल मेरा शीशे का
तेरे पत्थर जिगर पे फूटे
चुम्बन तेरे वो मेरे चेहरे न भूले
मेरे जलपात्र से हाथ तुमने अपने धोये
मेरे रुमाल से हाथ तुमने अपना पोंछा
तुमने कहा कुछ लिया ही न था
हाथ तुम्हारा साफ था
मुँह पर कोई दाग न था !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 15-02-1984
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