चाँद फीका - फीका है
तारे टिम - टिम करते हैं
शाम सुहानी ढल चुकी
झींगुर झींग - झींग करते हैं
रातों का ये सन्नाटा है
हवा सांय - सांय करती है
मरघट सी नीरवता है
गीदर हुआं - हुआं करते हैं
मन को शब्द शून्य कर देने वाली शांति है
पद के चांपों से पत्ते मड़ - मड़ करते हैं
घन घोड़ निस्तब्धता छायी है
मन काँप उठता है
किसी के आने से
आशंका बस एक ही होती है
शायद हाँ शायद
अभिसार को वो निकली हो
आँख खोल - खोल फैल जाती है
चहुँ दिशाओं की शांति भंग हो जाती है
निर्मूल हाँ निर्मूल
शंका थी बेहद निर्मूल
जो आहट उनकी थी नहीं
आहट उठी थी और विलीन हो गयी
सन्नाटा है कितना झील के गहरे पानी में
आयी थी चुपके से मेरे मन में
जैसे चाँद
हाँ चाँद दबे पाँव आकर
छा गया जंगलों के सूने आँगन में !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 04-01-1984 - समस्तीपुर
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