मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

154 . सहारा ढूंढ़ रहा हूँ मैं

154 .

सहारा ढूंढ़ रहा हूँ मैं 
जिन्दगी के लिए 
एक अजनबी की जरुरत है 
इस अजनबी के लिए 
बुरा न मानो तो 
मैं तुम से एक बात कहूँ 
तुम्हारी मुझको जरुरत है 
जिन्दगी के लिए 
चाह उस वक्त चाह होती है 
जब दिल को दिल से राह होती है 
क्यों मोहब्बत से तुझको नफरत है 
क्या मोहब्बत गुनाह होती है
याद आयेंगी अपनी जफ़ायें तुम्हें 
आप अपने से उस वक्त शरमाओगी 
फिर तुम अकेले में पछताओगी 
कोई देखेगा जब तुमको मेरी तरह 
कोई छेड़ेगा जब तुमको तेरे तरह 
लाके नजदीक तेरे हाथ को मेरे हाथ से 
कोई छू लेगा जब तुमको मेरी तरह 
दिल में कुछ सोंच कर कंप कंपा जाओगी 
फिर तुम अकेले में पछताओगी 
इक मुसाफिर का भी भला क्या ठिकाना 
आज हूँ मैं यहाँ कल चला जाऊँगा 
साथ जब तक भी हैं आओ हँस बोल लें 
लौटकर इस तरफ फिर न आ पाऊंगा 
जब चला जाऊँगा तो खुद से घबरावोगी 
फिर अकेले में तुम पछताओगी 
फिर तरन्नुम ऐसा पैदा न होगा कभी 
दिल की धड़कन फिर न बढ़ेगी कभी 
साँस जोरों से फिर न चलेगी कभी 
उम्र फिर न ये मिलेगी कभी 
अरमान दिल में न फिर जगेंगी कभी 
आशिक मिजाजी का समय 
फिर न मिलेगी कभी 
मोती से ये ओस 
फिर न मखमली घासों पर बिछेगी कभी 
फिर न फैलेगी प्यार की ऐसी सोंधी महक 
हो जायेगी जब तुझसे रुसवाई 
फिर न होगी कभी मौसम की ये चहक 
सर से पाँव तक सर्द हो जाओगी 
फिर तुम अकेले में बहुत पछताओगी 
अभी मचलती हो 
तब रुठोगी किसके लिए ?
अभी गुस्सा करती हो 
तब मुँह फुलाओगी किसके लिए 
ना ना करके मनाओगी किसके लिए 
सुन के बतियाँ मेरी 
आँखें भर आई है किसके लिए 
सुखी गुलाब बन कर रह जाओगी 
फिर तुम अकेले में पछताओगी 
होगा टुकड़े ज़िगर रोवोगी फुटकर 
याद आयेंगी जब - जब मेरी वफायें तुम्हें 
डूब जाओगी अश्के नदामत में तुम 
जानता हूँ दिल तोड़कर मेरा 
अकेले में फिर तुम बहुत खुश रह पाओगी 
तूँ हँसती रह हरदम 
यही है मेरी तमन्ना 
जलाके अपनी कब्र पे कफ़न 
छिड़कुंगा राख बाग़ में तेरे 
तेरे खुशियों के लिए 
कर दूंगा खुद को दफ़न 
सही है तेरा हर शिकवा और गिला 
वो तो मैं ही था गफ़लत से जुड़ा
शायद तेरे खुशियों का कीड़ा !

सुधीर कुमार ' सवेरा '    30-08-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

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