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आँचल से क्यों पार किया
मुझ परदेशी का प्यार
बसंत की कितनी रातें
आ रही हैं जा रही हैं
पर लगता है तुम न आ पाओगी
न मैं शायद आ पाऊंगा
किस आग में तूने झोंक दिया
न जल कर मैं मर पाया
न चैन से जी पाता
पर हर याद से फफोले उठ जाते हैं
रातों को ये रिसता है
यादों से जब रिश्ता जुटता है
अब कुछ तुम ही करो
कमल बन कर भौंरे को बंद कर लो
अब एक पल भी तेरे आगोश के बिना
जीना हो गया है दुश्वार
सब दीवारों को तोड़ कर
आओ हो जायें एक
दुनिया के उस पार
आओ बनायें एक नया संसार !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 28-10-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
आँचल से क्यों पार किया
मुझ परदेशी का प्यार
बसंत की कितनी रातें
आ रही हैं जा रही हैं
पर लगता है तुम न आ पाओगी
न मैं शायद आ पाऊंगा
किस आग में तूने झोंक दिया
न जल कर मैं मर पाया
न चैन से जी पाता
पर हर याद से फफोले उठ जाते हैं
रातों को ये रिसता है
यादों से जब रिश्ता जुटता है
अब कुछ तुम ही करो
कमल बन कर भौंरे को बंद कर लो
अब एक पल भी तेरे आगोश के बिना
जीना हो गया है दुश्वार
सब दीवारों को तोड़ कर
आओ हो जायें एक
दुनिया के उस पार
आओ बनायें एक नया संसार !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 28-10-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
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