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गोसाउनि
जय जय निर्गुण - सगुण तनु धारिणि ! गगण - विहारिणि मा हे।
कत - कत विधि हरिहर सुरपति गण सिरजि तोहें खाहे।।
निगुण कहव कत सगुण सुनिअ जत ततमत कए रहु वेदे।
थाकि थाकि बैसल छथि झखइत , नहि पाबथि परिछेदे।।
तोहरहि सं सभ तन , तोहरहि सं तन्त्र मन्त्र कत लाखे।
केओ नारि तन , केओ पुरुष तन अपन अपन कए भाखे।।
सुदृढ़ भक्ति रसवश तुअ अनुपम ई बूझिअ परमाने।
भुक्ति मुक्ति वर दिअऔ गोसांउनि ! कवि वागीश्वर भाने।
( मैथिल भक्त प्रकाश ) बागीश्वर
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