३५९ घर में आया लाल रंग का सोफ़ा किसी ने समझा उधार का किसी ने समझा मारे हुए माल का और समझा इसे किसी ने दहेज़ का तोहफा आया जो हमारे घर एक सोफ़ा हर्ष में डूबा हम सब का मन रंगत बदला घर का हाल वही है हमारे जेब का लोगों ने समझा ना जाने क्या - क्या सर उठा के आते थे कभी जो तगादा करने आज गुजरते हैं दर से अपने नजरों को चुरा के बहुत एहसानमंद है दिल मेरा कबूल कर ऊपर वाले का ये तोहफा आया हमारे घर में एक सोफ़ा ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०६ - १० - १९८४ १२ - ४० pm
३५८ सभी उत्तमता की ही रखा करते हैं आशा ढूंढ लिया है शायद सबों ने स्वर्ग का रास्ता यही वजह है मुंह के बल गिर रहे हैं सभी पता ही किंचित गलत हो शायद या हो वह गलत जिसने भी बतलाया हो यह रास्ता ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०८ - १९८४
३५७ पल वो हमने तुमने जिया था जो इस कदर गुजर गया पास ग़मों को छोड़ गया हमने तुमने लाख चाहा मिलन के बदले पर जुदाई पाया मेरे साँस ले लो मुझे तुम अपने सांसो का जहर मत दो ऐ वक्त एक एहसान कर खामोश मेरी जुबाँ कर अच्छा था तुम सोये थे मैं ही न था मात्र विवेक से आज तूँ है पर मैं ही न हूँ सब कुछ से तेरी जिंदगी तुझ पर मेरा ही एहसान है वर्ना जानते हैं सभी बेवफाई की सजा सिर्फ एक मौत है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०५ - ०८ - १९८४
३५६ क्या करूँ अर्पण मैं ऐ मेरे जीवन तुम्हे तोड़ कर तेरे सुमन से पुष्प करता हूँ अर्पण तुम्हे दर्द की खुशबु है जिसमे गम की रंगीन पंखुरियाँ विश्वासघात के पत्तों से उसकी है हर शाख हरी धोखे और स्वार्थ से जिसकी हर गाँठ भरी सादर समर्पित है ऐ मेरे जीवन तुम्हे और क्या करूँ अर्पण तुम्हे कुछ भूली मुस्कान कुछ रूठे अरमान यादों के कफ़न से लिपटी बेशुमार ख़ुशी और गम को अपने आदर्शों के टूटते हर साँस को अपने ईमानदारी और चरित्र के नाम बने बदनामी के कागज के फूलों को शत - शत समर्पित करता हूँ ऐ मेरे जीवन तुम्हे करता हूँ अर्पण आखरी मौत अपनी तुम्हे इसका सदा मुझे काफी अफ़सोस रहेगा सूरज भी नहीं एक दीपक की लौ की तमन्ना थी तुम्हे मैं जुगनू भी तेरे आँगन में न चमका सका मैं खारों से ही सदा रहा खेलता पर तुझे एक सुखी गुलाब भी न दे सका कोई प्यास न थी बस छोटी सी एक आस थी अकिंचन आस का वो कतरा भी न कर सका अर्पण तुम्हे ऐ मेरे जीवन भूल जाना तूँ मुझे भूले से भी गर जो आऊँ याद तुम्हे करना न कभी माफ़ मुझे बस यही वादा करता हूँ अर्पण तुम्हे ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०४ - ०७ - १९८४ ०४ - ३० pm
३५५ हर पल कालिमा से घिरा बलात्कार कर जाता है मानव का समुदाय यह गर्भ कर जाता है नाजुक गर्भ में मेरे कोमल विचारों के भ्रूण पलते हैं गर्भपात तुम्हे मेरा कराना है हर पल धिक्कारों के बोल देते दुत्तकारों फटकारों के साथ असह्य प्रसव पीड़ा मैं सहता करो जुल्म जितना तुम कर सकते नए विचारों को जन्मूंगा ऐसा मेरा मन कहता काँप - काँप जाता तन बदन सारा सह लिया जब पीड़ा इतनी कभी न अपने मन को मारा असफलताओं की सीढ़ी सामने आती चली गयी कदम फिर भी न हारे हादसे आये जो तुम चली गयी हर चौराहे पे आके साथ सब छोड़ गए दिशाविहीन हो खुद से पाँव उठते चले गए तेरे अत्याचार से बाहर जो निकला सारा ये तुम समझो अब वो कचरा है या हीरा मेरे कविता में बंद मेरे अरमानो के फूल हर शब्द एक आग अधर में गए झूल व्याकुल मन बस चुपचाप एक आँच है सुलगती दिल के ही जलने से कविता की आत्मा है बनती बस तड़पन और घुटन इस शहर में हर तरफ मानवता का नंगा नाच जिधर भी देखो हर तरफ सीने में एक जलन तन्हा जिंदगी के गुजारिश में भीड़ में कुचलता हुआ सा गुजरूं मैं इस शहर में हर शख्स घूम रहा सीने में तूफान लिए मैं घूम रहा हूँ जन्म का अपमान लिए जुल्म के तवा पर बनकर रहते सभी शाद सेंक कर स्वार्थ की रोटी कहलाते नहीं कोई नाशाद एक पुरदर्द सीने में आह बिना कफ़न के मजार बन सड़कों पे घूमता जल जाता बिना आग के मेरे रीढ़ की हड्डी में सड़ रही है मज्जा खुदा का कहर बरपा सर ऊपर है नहीं छज्जा हर सपने में भविष्य है जलता काँपते वर्तमान से एक कदम नहीं चला जाता जिंदगी से कभी भी हमें तो प्यार न था मौत भी इस कदर तरसाएगी इसका एतवार न था कफ़न के पैसे भी नहीं जुटते जिंदगी भला कैसे जी पाएंगे मौत गर आ भी गयी बिना कफ़न के कैसे भला मर पाएंगे या रब बस इतना रहम कर हमें इंसानो से दूर रख फिर तेरा जहाँ जी चाहे जमीन या आसमान पर रख तेरी एक नजर की चाहत में ही शायद हम मर जायेंगे दिल से तुझे जुदा शायद कभी न कर पाएंगे कर्ता को क्रिया के साथ तूँ न कभी जोड़ पायेगा एक आँख का मालिक सबको भला कैसे देख पायेगा ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०६ - १९८४ कोलकाता ११ - ३५ pm
३५४ शाम लाख गहराती है पर गोधूलि का वो एहसास कहाँ बुजुर्ग लाख मिलेंगे बुजुर्गियत का एहसास कहाँ मानव ही मानव बिखरा पड़ा मानवता का एहसास कहाँ जवानी आकर गम और तक़दीर की लड़ाई में ना जाने आई कब और चली गयी कहने को जवान हैं जवानी का एहसास कहाँ पहले दूर से देख कर भी देह सिहर उठते थे एक रोमांच भरा सिहरन सारे बदन में तैर जाता था अब सड़कों पे गाड़ी और रेलों में बदन से बदन सटता है अंग पे अंग धंसता है और वक्त यूँ गुजर जाता है न भावना को न तन न मन को यौवन के मादकता का एहसास होता है मिलते हैं सटते हैं बेखुदी में सब होता है सुबह होती है शाम होती है हम वहीं हैं पर एहसास कहाँ होता है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २१ - ०६ - १९८४ कोलकाता ९ - २० pm
३५३ तब तूँ किसी और की हो चुकी थी बहुत बाद तब जो तुझे देखा था मैंने ना जाने तूँ किस हसीन दुनियाँ में खो चुकी थी पर तब तेरे उस सुरमयी नैनो की शाम ' सवेरा ' की जिंदगी को बना रही थी नाकाम पर ना जाने तेरी तब क्या चाहत थी होंठो पे तेरे फिर भी नाजुक हंसी के फूल थे लब मेरे सूखे थे आँखें मेरी भींगी थी तुम कुछ इतरा कर लोगों को दिखा रही थी मैं तो तेरा कुछ नहीं वो तो तेरी फितरत थी ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९ - ०६ - १९८४ कोलकाता १२ - ४५ pm
३५२ शंकाकुल ये मन असंतुलित ये जीवन पथ स्वाभाविक संकोच हर लेते जीवन के सच यथार्थ से सर्वदा दूर भविष्य हो जाता क्रूर कल्पनातीत भविष्य दिखाता महा दुर्भिक्ष ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
३५१ मैं शून्य हूँ गुण अवगुण रूपी अंक मेरे नहीं मैं तो शून्य था शून्य हूँ ये अंक तेरे बिठाये हुए हैं मैं शून्य जैसे सूना आकाश मैं शून्य जैसे पृथ्वी का आकर निर्विकार निराकार निर्गुण निराधार मेरा न कोई रूप है ना ही कोई आकर यहाँ नहीं कोई विकार मैं शून्य हूँ शून्य ही है मेरा आकार शून्य की पहचान में समाविष्ट सब मुझ में शून्य को पाकर स्वामी विवेकानंद हूँ मैं परब्रह्म का हूँ मैं रूपाकार जिन - जिन धर्मों का जिन - जिन कर्मो का जिस ज्ञान का जिस विज्ञानं का इक्षा हो करलो मुझ में साक्षात्कार पर लोग अक्सर आपस की प्रीत गैरों की बातों में आकर तोड़ देते हैं ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०६ - १९८४ कोलकाता
३५० मौन का हर कतरा एकांत के हर ख्याल तेरे साथ जुड़े होते हैं तूने बहुत हिम्मत की मुझसे बेवफाई कर दूर मुझसे चली गयी पर तेरी इतनी बिसात कहाँ मेरे दिल से मेरे ख्यालों से मेरे यादों से तूँ दूर चली जा भागते - भागते तेरे पाँव दुःख जायेंगे मुझे भूलते - भूलते तेरे जीवन कट जायेंगे सारा प्रयत्न तेरा व्यर्थ हो जायेगा मेरे यादों से दूर तुझे नहीं रहा जायेगा सिर्फ एक मौत जो आ जाये शायद तेरे ख्यालों से जुदा कर पाये और लग जाये तब संबंधों का पूर्ण विराम ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
३४९ आओ मेरे पास मुझे तेरा ही है इंतजार तुम न आओगे आएगा कौन मेरे पास मृदु पवन के ले सहारे खुशबु गर नाकों में समाये लगे पास ही कहीं जुल्फों को खोले तूँ खड़ी हो या खनक कोई सुनाई दे तेरे ही पायल की झनक लगे तेरे लोच पूर्ण चालों से हवा की लोचकता भी शरमाये कोई संगीत दिल को छुए लगे तेरी हंसी फिजा में कहीं गूंजे हों हर खिलती कलियों पे तेरी मुस्कान लहराए हर आहट के बाद शांत और खामोश तेरे न आने का संकेत और इंतजार फिर इंतजार कल्पना में डूबते ही तेरे आने की आशंका और पापी मन की आवाज तुम जरूर आओगी पर शायद यहाँ नहीं जीवन के उस पार ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ११ - ०६ - १९८४ ९ - ३० am
३४८ मेरा सत्य मुझे धोखा दे गया समाज के सबसे बड़े असत्य रूपी सत्य को न स्वीकारने के कारण मैं अपने सत्य के लिए रेगिस्तान में एक बूँद अपने सत्य के खातिर भटक रहा हूँ मेरा सत्य मुझे हर चौराहे पर जलील कर रहा है ! सुधीर कुमार ' सवेरा '०३ - ०६ - १९८४ राँची २ - ११ pm
३४७ आओ - आओ बाहर झाँको ऊँचे - ऊँचे घरों को देखो ऊँचे लोग बड़े - बड़े लोग हैं ये सुन के इनके बड़े - बड़े बोल चा s s प s s ड़ s s ची s s पु s s ड़ s s s ना s s स s s रे s s पी s s चु s s प s s तूँ s s s लड़ते झगड़ते इनके देखो दिन बीते खोलें एक दूसरे की पोल ये हैं बड़े - बड़े लोग नाम हैं इनके जितने ऊँचे महल है देखो जितने बड़े काम करे हैं ये उतने ओछे ! सुधीर कुमार ' सवेरा '
३४६ जिसे तूने निष्प्राण और निर्जीव समझ गूंगा और बहरा समझ लिया विश्व का वो कुचला दलित ईंट और गारा बन एक दीवाल हो गया हाँ बस वो खड़ा है शायद उसे आत्म चिंतन का मौका मिल गया है या हो सकता है अपने अस्तित्व पर शोध कर रहा हो या तपस्या में तल्लीन हो मौन धारण कर लिया हो हो सकता है इन शोरों में उलझना न चाहकर दम साध लिया हो या अपने क्रांति का मार्गदर्शक मानचित्र तैयार कर रहा हो निर्मेश नेत्रों से तुम्हारे बाल सुलभ क्रीड़ा को देख - देख तेरे नादानी को समझ बस चुप है और शांत वो जानता है इस भगदड़ में क्या बोलना ? बस दो कदम और फिर सब शांत दिन को दीवाल बन बस तेरे बातों को सुनता है रात को तेरे मष्तिष्क के अल्ट्रावॉयलेट किरणों को चमगादड़ बन देखता है तुम्हारी सारी पहुँच तेरी सारी अक्ल हर उपायों के बावजूद निरर्थक साबित होती है और दीवाल को आँखों से बचकर तुम कुछ नहीं कर पाते तुम माइक्रोवेब से बोलो या मेगावेब से बोलो दीवाल सुनही लेगा तुम अल्ट्रावायलेट या इन्फ्रा किरणों को फेंको चमगादड़ देख ही लेगा ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०६ - १९८४ रांची ३ - ३६ pm
३४५ जिंदगी को ना जाने क्या समझकर फुसला रहा हूँ बहला - बहला कर मेरा असत्य जो कुछ न था मुझे पीछे धकेलता है मेरा सत्य मुझे नोचता खसोटता है दिल में हर को चाहने का बस एक दर्द भर उभरता है खाली - खाली उसूल खाली - खाली सिद्धांत मेरा बीता कल आज को घसीटता है मैं चाहता हूँ ढूँढना अपने उत्पत्ति का कारण मेरा मस्तिष्क लहूलुहान हो जाता है अपने पूर्वजों से टकरा - टकरा कर मुझे बुद्धि का एहसास मेरे लिए एक हादसा ईश्वर बना मेरे लिए उपहास मैं अपनी भावना और एहसास को खोना चाहता हूँ वंचित होना चाहता हूँ मन और बुद्धि से हाय ! जग में कोई नहीं जिसे मानू मैं दिल से ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०६ - १९८४ राँची ३ - २० pm
३४४ मेरे वक्त यूँ गुजर रहे गोया मैं कोई गुजरा हुआ वक्त होऊं हर लम्हा मेरे यूँ कट रहे जैसे सूखे पेड़ों की कटती हुई डाल हूँ भविष्य का अँधेरा मुझे आँख भी नहीं खोलने दे रहा मेरी हर कामना धरातल पर आने से पहले ही टूटे हुए तारों की तरह लुप्त हो जाती है मेरी अभिलाषा के फूल खिलने से पहले ही मरुभूमि में शहादत को पा जाते मेरी हर आकांक्षा अतृप्त ही रह जाती है मैं अपने को सत्य - असत्य के पलड़े पर असंतुलित रूप में जीवन में काँटे को दोलायमान पाता हूँ और मेरी अनकही कहानी कहासुनी के पृष्टभूमि पर ही चिपकी हुई रह जाती है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०५ - १९८४ राँची १२ -२० pm
३४३ एक समय था जब वो बच्ची थी बच्चों जैसी उसकी हरकतें थी जी भरकर मुझसे लड़ती थी ऐसी बात नहीं की वो मुझे नहीं चाहती थी पर मैं उस वक्त अपने को बड़ा और समझदार समझ ज्यादा करीब उसे आने न दिया और आज मैं बच्चा हो गया हूँ मेरी हरकतों को वो बचपना समझती है और बड़ो की तरह मुझसे व्यवहार करती है दुनियाँ वो मुझे सिखाती है चूँकि मैं अब तक कुँवारा हूँ वो तीन बच्चों की माँ है मुझे भी बच्चा समझ बड़ों की तरह मुझ पर अधिकार जताती है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ -०५ - १९८४ राँची १० - ४५ am
३४२ अलग - अलग रंगों में अलग - अलग चेहरे बेमुरव्वत से दीवालों से हैं चिपके बेसुध बेचारी दीवालें सबके भेद को जाने वो चीखती है रात के अँधेरे में अपने नगरवासियों पर उनके भाग्य पर कभी रोती हैं कभी विद्रूप सी हँसी हँसती है वो नकाब उलटाकर लोगों को परिचय देती हैं सबके लिखे वादों को चुटकुले सा सुनाती है फिर दीवालें गम में डूब जाती हैं हर बार के बलात्कार से अब वो ऊब चुकी है हाय रे उसकी मज़बूरी ढहाना चाहकर भी ढाह नहीं पाती है रातों के सन्नाटे में एक सर्द आह ही भरकर रह जाती है वो क्या नहीं जानती है त्रिकालदर्शी है उसके सगे सम्बन्धी कहाँ नहीं हैं मानव के मानवीय ज्ञान के उद्भव से ही वो मानव को पहचानती आ रही है वो यह कभी नहीं कहती मुझ पर लगे मुखौटे को तुम अपना लो और अपना भाग्य विधाता बना लो हर बार वो कहती है मुझ पर लगे इन चेहरों को गौर से देखो तुम सबों से मैं इसे अलग करना चाहता हूँ हर बार वो कहती है ये चेहरे उदविलाव हैं गिरगिट हैं सियार हैं बच निकलो तुम इनसे यही इनकी पहचान है पर हाय रे !गूंगा , बहरा , अँधा मानव अपने ही हाथों से अपने पैरों में बेड़ियां डाल रहा है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०५ - १९८४ रांची १० - २० am
३४१ खुशनसीब हर वो दिन साथ जब गुजरे नेक दिल के साथ छूटे हंसी फव्वारे भेद न हो कोई दिल में पास कहीं भी दिल में किसी के कोई भेद भाव न था साथ जो गुजरी उन सबों के साथ चक्रव्यूह में हम हैं चक्रव्यूह के पार जानकर सब कुछ हर एहसास के पार हैं चाहते नहीं चक्रव्यूह में फंसना पाते खुद को चक्रव्यूह के साथ हैं लगने लगता है चक्रव्यूह में सब अपना जब याद नहीं रहता खुद का जगने के बाद हो जाता है पराया हर सपना हर निर्णय मुस्कुराता है निर्णय लेने के बाद चक्रव्यूह से बाहर हो जाने के बाद चकव्यूह रह जाता है बरक़रार मानवता के तराजू पर विहंस रही है क्रूरता और हैवानियत कांटे के बीच में खड़ा मुस्कुरा रहा है मानव की नपुंसकता ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९ - ०५ - १९८४ राँची ११ - ३० am
३४० कविता में जिंदगी का अर्थ ढूंढ रहा था मौत का पंजा बाहर निकला नजर आया समुन्दर से भी गहरे प्यार की तमन्ना में रेत का दरिया बहता नजर आया झुलसी अधजली मेरे अरमानो की चिता पर उनका आलिशान महल खड़ा नजर आया मेरे वफ़ा को ज़माने ने नादानी कही प्यार में उनके पागल हुआ तो हँसता चेहरा उनका नजर आया लोगो ने कहा कहाँ फंस गए हो हर मोड़ पे उनका छलिया चितवन नजर आया ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २२ - ०५ - १९८४ कोलकाता ९ - ५५ pm
३३९ प्यार में लूटना ही पड़ता है मैं लूट चुका हूँ प्यार में बर्बाद होना पड़ता है बर्बाद मैं हो चूका हूँ प्यार में मिटना ही पड़ता है मिट रहा हूँ तिल - तिल कर जलना पड़ता है जल रहा हूँ बदनामी का सेहरा भी माथे पे आ लगता है पर प्यार होकर ऐसा कोई न हो बेवफा जान ले ले पर जुदा न हो हर सितम करे पर बेवफा न हो ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २२ - ०५ - १९८४ कोलकाता ८ - ४५ am
३३८ रास्ता और लगन गर जो हो सही हर मंजिल स्वयं पास चली आती वो मेरे एथेंस के सत्यार्थी अधूरे सत्य के दर्शनकर्ता तुझसे भूल अब हुई जो तूने इतने पे ही निचोड़ निकाल लिया अभी सत्य पका कहाँ था जो तूने स्वाद चखने का दावा कर लिया तुमने जाना ही था गलत आशा तुम्हारी गलत थी प्रयास और विश्वास दोनों तुम्हारे सही हैं वीरानी कह कर जिससे तूँ रुष्ट हुई वो तो तेरे ही प्रयासों की तुष्टि थी सर्वप्रथम अपने कर्म और उसके फल को सही प्रभाषित करो फिर सत्य को पकड़ो या हारे हुए जुआरी की तरह आम मुखौटों में अपना मुखौटा छुपा लो !
३३७ हम कहते हैं हम सुनते हैं हम लिखते हैं फिर ढेर सारे पुरुस्कार हमारे मुंह पर आ लगते हैं क्या तुमने सोंचा कभी तुम्हारे लिखने का तात्त्पर्य सिर्फ पुरुस्कार था तुम्हारे सत्य की कीमत मात्र चाँदी के चंद सिक्के थे तुम्हारे सत्य के साक्षात्कार का सिर्फ इतना ही मोल था तुम्हारा सत्य ऐसे पुरुस्कारों के लिए न था वो भी वैसे से जिसने तेरे सत्य को जाना तक नहीं इतिहास गवाह है आज तक के सच्चे ज्ञानी पुरुस्कार विहीन रहे तुझे तेरे क्षुद्र शाब्दिक ज्ञान पर ही तुम्हे कैद कर दिया जाता है और तुम अपनी स्वतंत्रता के देवी के पाँव में खुद बेड़ियां डाल कर उसके प्रहरी बन जाते हो इस तरह मानवता के दीप हर बार पूर्ण आलोकित होने से पहले ही बुझ जाता है इस तरह हर भागिरथ प्रयत्न के बाद हम बाधित दीवालों के मुंडेर तक पहुँच कर पुनः उसी अंध कूप में आ गिरते हैं ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०५ - ०५ - १९८४ २ - ०० pm
३३६ तुम संतुष्टि अंदर में चाहते हो और बाह्य दृष्टि से अपने को अलग नहीं कर पाते हमारा मूल जिसकी हमें तलाश है हम सर पीटते हैं और भटकते हैं भौतिकता से हम खुद को अलग नहीं कर पाते परिणाम अन्तः जिसे चाहा न था पाकर भी वो रोयेगा और आध्यात्मिकता जो जीवन की दवा है दूर उससे भागते हैं फिर कैसे भला हम आशा करें कष्ट हमारे दूर होंगे हर पल एक नया जख्म ले लेते हैं पुराने जख्मो के भरने के प्रयास में खुद को खुद से दूर कर लेते हैं खुद के पास आने में जिनसे मानवता कराहती है समाज में जो दुःशासन हैं उन्हें ही हम जिरहबख्तर मुहैया कर मजबूत बना रहे हैं इस तरह शैतान को दिनों दिन बलशाली बनाकर उसकी पूजा कर रहे हैं ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०८ - ०५ - १९८४ ४ - ०० pm
३३५ तुम और तुम्हारा समाज ग्रसित है अमानवीय रोगों से तुम्हारे मनीषी जो उपचार बतलाते हैं वो रोग की भयंकरता बढाती है आग के शांति का उपाय घी नहीं होता शांति के हेतु अशांति कभी साधन नहीं हो सकता पर हम अपनी बुद्धि को कुंठित कर हर बार एक नया विष पैदा कर उसे ही अमृत कह ऊँचे कीमतों में बेचते हैं कोई और नहीं हमारे रोने का कारण हम खुद हैं वर्तमान में मानव बहुत शक्तिशाली है मानवता फिर भी रोती है आखिर ऐसा क्या है जो हमारे सही ज्ञान को भी ग्रस लेता है क्यों न हम उसे ही ग्रस लें ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०८ - ०५ - १९८४ २ - ०० pm
३३३ दर्द में डूबी शाम है मेरी गर्द में डूबा नाम नाम तेरा ले - ले के हम तो प्यार में हुए बदनाम मन मंदिर में तुझको बिठाकर कुचल गए मेरे सारे अरमान तुम जो न होते यार मेरे तो अपना होता ऊँचा नाम वफ़ा करके तुझसे हम होते न यूँ बर्बाद सनम करके मोहब्बत तुझसे हमने क्या - क्या न जुल्म सहे दिल भी टुटा आश भी छूटी दर्द की ऐसी बांध जो टूटी बिखर गया तिनका - तिनका आदर्शों के मेरे जो तूने महल तोड़ी दर्द में डूबी शाम है मेरी गर्द में डूबा नाम नाम तेरा ले - ले के हम तो प्यार में हुए बदनाम ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०४ - १९८४ कोलकाता २ - १० pm
३३२ सर्द हवा के झोंके से तुम क्यों ऐसे मिले मैं तो गीली मिट्टी था तुमने जैसे चाहा सांचे गढ़े ख़ुदपरस्ती की दुनियाँ में खुदगर्ज क्या तुम मिले कोरा कागज था मैं जैसे चाहे तुमने रंग भरे मेरा सूना आकाश चुनकर मनमाने सितारे भरे तुम जब थे मिले सूना मेरा आँगन था विस्तृत थे मेरे विचार पर जान सका न तेरा ये अव्यवहृत व्यवहार खामोश सर्द मैं गर्म मेरी आह ईश्वर करे बचा ले तुम्हे बस इतनी सी है मेरी चाह हाँ जानता हूँ मैं तुम मेरे सपनो और यादों के कमरे में आया करोगे जी भर मुझे सताया करोगे ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०४ - १९८४ ११ - ३० am
३३१ बहुत दिनों के बाद तुम्हे देखा तेरी पहचान और उसका अंतराल मेरे जिज्ञासा को मेरे अनुमानित विचारों को जैसा मैंने समझ रखा था यह तो मैदान की गलती थी ऐसा ही क्यों उसने समझ रखा था केवल पानी ही आयेगा और कुछ नहीं सो मैं समझ न पाया वो तुम हो हाँ वही नाम वही रूप रंग आवाज भी वही फिर भी कुछ ऐसा जिसे सिर्फ मेरा अंतःस्थल समझ रहा था वो तुम में कुछ शायद खो गया था पर तुमने जिसे अपनी पदोन्नति समझकर अपने अंकों में भर लिया था मैं फिर नए सिरे से तुम्हे जानना चाहता हूँ मेरी हर बात पे अब तुम हंसा करते हो पहले ऐसा नहीं था तब तुम बड़े मनोयोग से सुना करते थे तेरी उम्र शायद मुझसे बहुत कम है पर तेरी हंसी काफी अनुभव लिए है मैं सत्य को पाकर भी काफी सोंचता हूँ असत्य का मुलम्मा तेरे पहचान को मुझसे जुदा कर रहा है पर मैं खुश हूँ तुम्हे विचारों के बिना जीना आ गया है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २८ - ०४ - १९८४ कोलकाता ११ -३२ am
३३० बंद जिसके अक्ल के दरवाजे अर्थों के जो भेद न जाने अकड़ा बैठा कुर्सी पे बड़े कहीं आज प्रकाशक हैं कहलाते नैनों को आच्छादित किये अक्षरों के विशालन के लिए फिर भी वो सूक्ष्मत्तर भेद को न जान पाये गर्दन में लगे फांसी के गांठ को उठकर लूज करते हुए पटक रचनाओं को औरों के सिर पर कहते हैं क्या बकवास लिखा है प्रेषक के डिग्री पढ़ रचनाओं को समझता सारगर्वित शब्दों को बकवास समझता छेड़खानी को बलात्कार कहता मारपीट को जातीय दंगा कहता खुद हुस्न और दौलत की आग में जलता रहता निर्दोष कलमों की भाषा न समझ पाता समाज देश , व्यक्ति के जीवन का अर्थ न समझता निर्दोष व्याधि रही रचनाओं में आज का प्रकाशक शब्दों का अर्थ हाथों से टटोलता ! सुधीर कुमार ' सवेरा '