गुरुवार, 27 नवंबर 2014

341 .खुशनसीब हर वो दिन

३४१ 
खुशनसीब हर वो दिन 
साथ जब गुजरे 
नेक दिल के साथ 
छूटे हंसी  फव्वारे 
भेद न हो कोई दिल में पास 
कहीं भी दिल में  
किसी के 
कोई भेद भाव न था 
साथ जो गुजरी उन सबों के साथ 
चक्रव्यूह में हम हैं  
चक्रव्यूह के पार 
जानकर सब कुछ 
हर एहसास के पार हैं 
चाहते नहीं चक्रव्यूह में फंसना 
पाते खुद को चक्रव्यूह के साथ हैं 
लगने लगता है 
चक्रव्यूह में सब अपना 
जब याद नहीं रहता खुद का 
जगने के बाद 
हो जाता है पराया हर सपना 
हर निर्णय मुस्कुराता है 
निर्णय लेने के बाद 
चक्रव्यूह से बाहर हो जाने के बाद 
चकव्यूह रह जाता है बरक़रार 
मानवता के तराजू पर 
विहंस रही है क्रूरता और हैवानियत 
कांटे के बीच में खड़ा 
मुस्कुरा रहा है 
मानव की नपुंसकता !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९ - ०५ - १९८४ राँची 
११ - ३० am 

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