३२९
चंद गोल चिपटे
खरे आरे तिरछे
अभिव्यक्ति की रेखा चित्रें
अव्यवस्थित उटपटांग
फैले बेतरतीब जाले
भय , हास्य , करुण , त्रास
चारों ओर के विम्बित छाये
भीतर गहरे पैठ कर
दूर - दूर अँधेरे में जाकर
लाते जो ढँक - ढँक
फैलाते अपनों जख्मो से
सुरभित सौम्य सुगंध
जख्मो को खरीद - खरीद
लहुओं को बेच - बेच
दिल को कुरेद - कुरेद
अपने को बार - बार छल
देता जो अर्थ अनेक
समझा जीवन के अर्थ अनेक
सांसे जिसकी घुटती रहती
पल - पल जी - जी कर
जो मौत खरीदता
खुद को मिटाकर भी
औरों के हेतु प्रकाश फैलाता
उनके ही दीप्त आभा को
अँधेरी कविता कहा जाता !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २४ - ०४ - १९८४
कोलकाता ५ - ४७ pm
चंद गोल चिपटे
खरे आरे तिरछे
अभिव्यक्ति की रेखा चित्रें
अव्यवस्थित उटपटांग
फैले बेतरतीब जाले
भय , हास्य , करुण , त्रास
चारों ओर के विम्बित छाये
भीतर गहरे पैठ कर
दूर - दूर अँधेरे में जाकर
लाते जो ढँक - ढँक
फैलाते अपनों जख्मो से
सुरभित सौम्य सुगंध
जख्मो को खरीद - खरीद
लहुओं को बेच - बेच
दिल को कुरेद - कुरेद
अपने को बार - बार छल
देता जो अर्थ अनेक
समझा जीवन के अर्थ अनेक
सांसे जिसकी घुटती रहती
पल - पल जी - जी कर
जो मौत खरीदता
खुद को मिटाकर भी
औरों के हेतु प्रकाश फैलाता
उनके ही दीप्त आभा को
अँधेरी कविता कहा जाता !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' २४ - ०४ - १९८४
कोलकाता ५ - ४७ pm
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