मंगलवार, 11 नवंबर 2014

326 .बित्तेभर की घास घनेरे

३२६ 
बित्तेभर की घास घनेरे 
लम्बे - लम्बे पेड़ बहुतेरे 
क्या सिख क्या पठान 
क्या हिन्दू क्या मुसलमान 
हुस्न की आग सबको जलाती 
दौलत की प्यास सबको भरकाती 
कोई बैठा है लेकर पेड़ की छाँव
कोई बैठा लिए कहीं कोने में ठाँव 
हर को एक ही दर्द है 
हर को एक ही जलन है 
कैसी ये सबको 
जवानी की आग लगी है 
बुझाए भी बुझती नहीं है 
जिसे कोई नहीं मिला 
वो सिर्फ देखा किया 
सामने शांत तरंग रहित तालाब 
चारों ओर बेंच पर बैठे 
जल रहे हैं एक साथ दो अलाव 
देखने वालों के दिल में हलचल 
तालाब है बिलकुल शांत 
तालाब को ये चाह नहीं 
किनारा उससे पूरा सटा रहे 
पर तपते दो जिस्म 
चाहते नहीं बीच में कोई अलगाव 
नादान उम्र की ये नादानियां 
समझते हैं ये जिसे समझदारी 
मालूम नहीं इन्हे ये है कितनी बड़ी बेबकूफियां 
फतिंगे की ये मजबूरियां  भला किसको है पता 
शमा से उसको प्यार है 
बस यही उसकी खता है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' कोलकाता ५ - ३० pm  1984

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