शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

337 .हम कहते हैं

३३७ 
हम कहते हैं 
हम सुनते हैं 
हम लिखते हैं 
फिर ढेर सारे पुरुस्कार 
हमारे मुंह पर आ लगते हैं 
क्या तुमने सोंचा कभी 
तुम्हारे लिखने का 
तात्त्पर्य   
सिर्फ पुरुस्कार था
तुम्हारे सत्य की कीमत 
मात्र चाँदी के चंद सिक्के थे 
तुम्हारे सत्य के 
साक्षात्कार का 
सिर्फ इतना ही मोल था 
तुम्हारा सत्य 
ऐसे पुरुस्कारों के लिए 
न था 
वो भी वैसे से 
जिसने तेरे सत्य को 
जाना तक नहीं 
इतिहास गवाह है 
आज तक के सच्चे ज्ञानी 
पुरुस्कार विहीन रहे 
तुझे तेरे 
क्षुद्र शाब्दिक ज्ञान पर ही 
तुम्हे कैद कर दिया जाता है 
और तुम अपनी 
स्वतंत्रता के देवी के पाँव में 
खुद बेड़ियां डाल कर 
उसके प्रहरी बन जाते हो 
इस तरह मानवता के दीप 
हर बार 
पूर्ण आलोकित होने से 
पहले ही बुझ जाता है 
इस तरह 
हर भागिरथ प्रयत्न के बाद 
हम बाधित दीवालों के 
मुंडेर तक पहुँच कर 
पुनः उसी अंध कूप में 
आ गिरते हैं !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०५ - ०५ - १९८४ 
२ - ०० pm  

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