३१७ .
वर्षों बाद
गया था गांव
बिन विवाद
आशियाँ सब वैसे ही थे
पर रास्ते सुने थे
कमरों की स्ंख्या
उतने ही थे
आदमी घट गए थे
घर बाहर
बस वृक्ष रह गए थे
फल गांव छोड़ चुके थे
कांतिविहीन चेहरे
सब के बोझिल मन थे
गांव तब जवान था
बचपन जब मेरा नादान था
किलकारियाँ गांव की
खामोश हो गयी थी
बहारें आती थी
पर खामोश
गांव की किलकारियाँ
बड़े बड़े शहरों के
किसी आत्मा विहीन
घरों मे झोपडों मे कैद थी
गांव का बचपन
गांव का अल्हड़पन
सब समाप्त था
वक्त ने मजबुरी बनकर
गांव के तन को
बुढ़ापे से ढँक दिया था |
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १७ - ०४ - १९८४
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