३२१
ह्रदय के सुरभित द्वार
खुले थे
विश्वासों के बसंती झोंके
विचर रहे थे
मैं विनम्र किसी मूर्तिकार की कल्पना
शालीनता से
चांदनी रात में
शिलाखंड पर बैठा
अपलक इक्षाओं को निहार रहा था
भीतर मेरे
कोई जो आकर बैठा था
कोई और नहीं
वही
जिसे मैंने अपना समझा था
जिसने खुद से ऊब कर
अपने उदासी के घेरे से
मौन सुनेपन के झोंके से
स्वयं स्वागत किया था
बाहर आ
हंसती स्वरलहरियां
ओठों पे उसके
मैंने सजा दिया
जीवन का अर्थ समझा
उसे जीना सीखा दिया
पर खुद मैं
बाहर ही रह गया
और उस निष्ठुर ने
मेरे लिए ही
द्वार अपना बंद कर दिया !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १७ - ०४ - १९८४
ह्रदय के सुरभित द्वार
खुले थे
विश्वासों के बसंती झोंके
विचर रहे थे
मैं विनम्र किसी मूर्तिकार की कल्पना
शालीनता से
चांदनी रात में
शिलाखंड पर बैठा
अपलक इक्षाओं को निहार रहा था
भीतर मेरे
कोई जो आकर बैठा था
कोई और नहीं
वही
जिसे मैंने अपना समझा था
जिसने खुद से ऊब कर
अपने उदासी के घेरे से
मौन सुनेपन के झोंके से
स्वयं स्वागत किया था
बाहर आ
हंसती स्वरलहरियां
ओठों पे उसके
मैंने सजा दिया
जीवन का अर्थ समझा
उसे जीना सीखा दिया
पर खुद मैं
बाहर ही रह गया
और उस निष्ठुर ने
मेरे लिए ही
द्वार अपना बंद कर दिया !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १७ - ०४ - १९८४
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