३१८ .
जुर शीतल एक पर्व है
परम्परागत
अनचाही एक खेल है
सदियों पहले
आखेट का जब युग था
दो गाँवों के बीच
काफी फासले होते थे
पेट भरने के वास्ते
जंग्लों मे शिकार को
झुंड बनाकर लोग जाया करते थे
दिन वो खुशी का या मनहूस रहा होगा
जब शिकार किया गया
एक दूसरे का सीमा पड़ गया होगा
और तर्को से न होकर
लाठी के बल अधिकार
जताया गया होगा
तारीख वो चौदह अप्रैल ही होगा
जो तारीख परम्परा बन गायी
असल तो उसी दिन
समाप्त हो गया
नकल बेअकल को
ढोना पड़ गया
उठ कर इस दिन
बड़े लोग
छोटों के सर पे
दीर्घायु का आशिर्युक्त
जल छिड़कते हैं
फिर दिन भर
लाठी से धूल माटी
और पानी से
मनोरंजन जी भर कर
शाम के तीन और चार के होते ही
पिलsखवार [पिक्लक्ष्यवाट]और मंगरौनी
[मंगलबनी]
एक तरफ
मगरपट्टी और खोइर् एक तरफ
गाँवों के परती जमीन में
सज जाते हैं आमने सामने
दो सेनाओं की तरह
मानवता इंसानियत का परित्याग कर
अपने ही परिजनों और दोस्तों के बीच
रोड़े बाजी हो जाती है शुरू
अब तो वर्षों से
सरकार ने पुलिस की व्यवस्था कर दी है
फिर भी इस अमानुषी खेल को
उठा नहीं सकी
अब कुछ घायल होते हैं
कभी कोई प्राणों से हाथ भी धो देते हैं
ढेले लाठी भाला बल्लम
बरछी तीर धनुष ढेलबंस
इतने सारे हथियारों की होड़
पीछे से बुजुर्गों का जोश भरा शोर
कारण जिसके
लड़ने वालों के पाँव हो नहीं पाते कमजोड़
उधर सूर्य अस्तगामी होता
इधर लोग घरगामी होते हैं
परम्परा कितनी विचित्र होती है
प्रबुद्ध भी सही को सही
गलत को गलत नहीं कह पाते
इस तरह जुर शीतल मनाये जाते हैं
फिर दिन भर
लाठी से धूल माटी
और पानी से
मनोरंजन जी भर कर
शाम के तीन और चार के होते ही
पिलsखवार [पिक्लक्ष्यवाट]और मंगरौनी
[मंगलबनी]
एक तरफ
मगरपट्टी और खोइर् एक तरफ
गाँवों के परती जमीन में
सज जाते हैं आमने सामने
दो सेनाओं की तरह
मानवता इंसानियत का परित्याग कर
अपने ही परिजनों और दोस्तों के बीच
रोड़े बाजी हो जाती है शुरू
अब तो वर्षों से
सरकार ने पुलिस की व्यवस्था कर दी है
फिर भी इस अमानुषी खेल को
उठा नहीं सकी
अब कुछ घायल होते हैं
कभी कोई प्राणों से हाथ भी धो देते हैं
ढेले लाठी भाला बल्लम
बरछी तीर धनुष ढेलबंस
इतने सारे हथियारों की होड़
पीछे से बुजुर्गों का जोश भरा शोर
कारण जिसके
लड़ने वालों के पाँव हो नहीं पाते कमजोड़
उधर सूर्य अस्तगामी होता
इधर लोग घरगामी होते हैं
परम्परा कितनी विचित्र होती है
प्रबुद्ध भी सही को सही
गलत को गलत नहीं कह पाते
इस तरह जुर शीतल मनाये जाते हैं
जो भी हो
परम्परा निभाना भी एक गज़ब अनुभूति है
अपने अपने शौर्य की स्मृति है !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें