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भगवति हरि सतत दुखदारिद बगलामुखि तुअ नामे।
कनक सिंहासन पर तुअ पद युग तीनि नयन पुरु कामे।।
पीतवसन तन चामीकर सन मुकुट निशाकर राजे।
चम्पक माल विराजित पहिरन चारि बाहु छवि छाजे।।
मुद्गर पास वज्र रिपु रसना भूषण शोभित देहा।
द्विष दामिनि तिनि लोकक चिन्तित निज जन पर अति नेहा।।
तुअ पद पङ्कज सुरमुनि सेवत शत्रुक करत विनाशे।
आदिनाथ पर कृपायुक्त भय सतत पुरिय सभ आसे।।
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