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जननी ! लिअ आब सुधि मोर।
पामर दीन विहीन ज्ञान हम जानि न महिमा तोर।।
यौवन मद मे मक्त छलहुँ मा ! वनिता भोग विभोर।
हिंसा क्रोध प्रलोभक वस मे कैल स्मरण नहि तोर।।
यमक बराहिल जरा पकड़लक अपना तन नहि जोर।
" काञ्चिनाथ " अगति मे करइत छी मा ! मा ! मा !सोर।।
" काञ्चिनाथ " झा ' किरण '
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