ADHURI KAVITA SMRITI
सोमवार, 17 अप्रैल 2017
737 . भवभयभञ्जनि असुर विनासिनि।जगजनपविनि त्रिभुवनकारिनि।
७३७
भवभयभञ्जनि असुर विनासिनि।जगजनपविनि त्रिभुवनकारिनि।
मनसुखदायिनि रिपुगणमारिनि। जयजगदायिनि जय बलकारिणि।।
सुरगणनन्दिनि दुरितनिकन्दिनि। मृगपतिचारिणि समरविदारिणि।।
नृप जगजोति मति चण्डीचरनरति। राग मल्लार जाति ताल रूपक गति।।
( मुदित कुवलयाश्व नाटक )
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