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दालिम दशन पाती अधर विद्रुम कांती।
सुखक सदन प्रसन्न वदन पुनित चाँदक भाँती।
देवि हे तों हहि जगतमाता।
सकल संयत मूनि अभिमत , चारि पदारथ दाता।।
नयन भौंह विलासे मदनवाण प्रगासे।
विकल कमलयुगल ऊपर भ्रमन पाँति विकासे।।
दानव दलन शीले विहित समर लीले।
जगततारिणि दुरित दारिनि विवुध पालन धीरे।।
नृप जगजोति गाबे तुअ पद मन लाबे।
जेहन जलद चातक चाहए आन किच्छु नहि भावे।।
( मुदित कुबलयाश्व नाटक )
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