रविवार, 26 अगस्त 2012

130 . पलक दो पलक

130 . 

पलक दो पलक 
देख पाया एक ही झलक 
तब से तूँ ही छा गयी है 
यत्र तत्र सर्वत्र 
चाल थी तेरी मतवाली 
जैसे कोई अल्हर जवानी 
जितनी ही हसीन 
उतनी ही कमसिन 
थी लगती बिलकुल ही नाजनीन 
लचकती शाख की तरह 
लचकती कमर थी 
लाल गुलाब की ही तरह 
लाल - लाल ओंठ थे 
दूध में घुली आलता की तरह 
लगती सुर्ख गुलाब थी 
महीन वस्त्रों के पीछे से 
झाँकती राज थी 
लाज से आँख उठा न पाया था 
यही कारण था कि 
अर्ध भाग ही देख पाया था 
अर्ध से ही पूर्ण का हो रहा भास था 
जैसे अर्ध चन्द्र से ही 
होता पूर्ण चन्द्र का आभास है 
मैं बना सकता था तुझको अपना 
पर देख कर तेरा जलवा 
खुद को अयोग्य ठहराया है !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  24-09-1980

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