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तेरी निगाहें खामोश नहीं हैं
चुप सी रहती हैं
पर शांत नहीं हैं
कुछ खोजती रहती हैं
रह - रह कर भटकती रहती हैं
आँखों की दशा बराबर है
चाहे वो हमारी हो
या तुम्हारी हो
इन आँखों में एक भूचाल है
छिपा हुआ समाज का तिरस्कार है
दबा हुआ प्रतिरोध का आग है
समाज के सड़े हुए परम्पराओं से
लड़ने को तैयार है
कभी यह आँख ही तलवार है
कभी यह आँख ही अंगार है
कुचली हुई यह दावानल है
या निकलती हुई चिंगारी है
समाज के पाप को भी
खुद ढ़ोती है आँखें
खुद को रुला - रुला कर
दिल को दुःखा - दुःखा कर
रोती है ये आँखें
अपने को भुलाती है आँखें
गैरों के लिए दर्द है
अपनों के लिए नफरत है
पराये के दर्शन को भी
तरपती है ये आँखें
आईना झूठ बोल देता है
पर सच ही कहती हैं आँखें
शर्म हया इसलिए
कि कसमें वादे तोड़ दिये
अपने ही प्यार के लिए
बनकर प्यार के लिए बेवफा
भर ली है लाज आँखों में
परम्परा के मज़बूरी में पिस - पिस कर
यातनाओं से लड़ - लड़ कर
झूठी प्रतिष्ठा के डर से
चुरा ली है अपनों से ही अपनी आँखें
सच का कर सके जो सामना
रही न अब वो उनकी आँखें !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 08-12-1983
चित्र गूगल के सौजन्य से
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