११८ .
जब - जब पुराने रास्तों से गुजरा
रास्ते ने मुझ से पूछा
रुक - रुक कर
ठहर - ठहर कर
टोकते हुए यूँ पूछा
ऐ पथिक
जरा ये तो बता
क्यों आज तूँ है अकेला
कहाँ गया जो था हम सफ़र तेरा
मैंने सोल्लास पूछा
तूँ ही बता
लगता है तुझे क्या
तुने तो उनके क़दमों को
बार - बार बहुत बार था चूमा
तूँ ही बता गर वो
था हम सफ़र मेरा
फिर क्यों साथ मेरा छोड़ा
तूँ ही तो था एक साक्षी हमारा
बता था क्या कसूर मेरा
नाता क्यों उसने मुझसे तोड़ा
रहस्यमय शब्दों में वो बोला
भेद है बड़ा ही निराला
जब वो ही नहीं बता सकती तुझको
फिर भला मैं क्या बता सकता तुम को
दर्द मुझे भी बहुत है होता
देखता हूँ जब कभी तुझे अकेला
मैंने कहा बस करो
मत दो सहानुभूति इतना मुझे
अपनों के अकेलेपन से
अब मैं हूँ बहुत घबराता
बस तुम इतना जान लो
सत्य को पहचान लो
स्वार्थ से तेरा कोई नाता नहीं
इसलिए बस धुल के धुल हो
उन्हें तुम से कुछ ज्यादा समझा था
ऊँचा उठने का उनमे ललक था
जब मौका हाथ में आया
धुल झाड़कर
उन्होंने दुसरे का हाथ थाम लिया
तेरा यह पथिक बहुत ही था अकेला
दुनियाँ से कुछ अलग
शून्य के अधर में था लटक रहा
आकाश कुसुम को छूने का
दिल में लिए था अरमान
मैं खुद कब
अलग हो गया
टूट कर
वक्त के डाली से
ऊपर था छितराया आसमान
निचे धुल भरा मैदान
सितारों के लोक से
चुरा लिया था एक सितारा
आकर जगमग थोरी देर कर
खुद बन लुटेरा
मुझको लुट कर चला गया
एक तड़पन एक जलन
एक आग दे गया
रोने को बस
दिन और रात दे गया !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १२-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से
जब - जब पुराने रास्तों से गुजरा
रास्ते ने मुझ से पूछा
रुक - रुक कर
ठहर - ठहर कर
टोकते हुए यूँ पूछा
ऐ पथिक
जरा ये तो बता
क्यों आज तूँ है अकेला
कहाँ गया जो था हम सफ़र तेरा
मैंने सोल्लास पूछा
तूँ ही बता
लगता है तुझे क्या
तुने तो उनके क़दमों को
बार - बार बहुत बार था चूमा
तूँ ही बता गर वो
था हम सफ़र मेरा
फिर क्यों साथ मेरा छोड़ा
तूँ ही तो था एक साक्षी हमारा
बता था क्या कसूर मेरा
नाता क्यों उसने मुझसे तोड़ा
रहस्यमय शब्दों में वो बोला
भेद है बड़ा ही निराला
जब वो ही नहीं बता सकती तुझको
फिर भला मैं क्या बता सकता तुम को
दर्द मुझे भी बहुत है होता
देखता हूँ जब कभी तुझे अकेला
मैंने कहा बस करो
मत दो सहानुभूति इतना मुझे
अपनों के अकेलेपन से
अब मैं हूँ बहुत घबराता
बस तुम इतना जान लो
सत्य को पहचान लो
स्वार्थ से तेरा कोई नाता नहीं
इसलिए बस धुल के धुल हो
उन्हें तुम से कुछ ज्यादा समझा था
ऊँचा उठने का उनमे ललक था
जब मौका हाथ में आया
धुल झाड़कर
उन्होंने दुसरे का हाथ थाम लिया
तेरा यह पथिक बहुत ही था अकेला
दुनियाँ से कुछ अलग
शून्य के अधर में था लटक रहा
आकाश कुसुम को छूने का
दिल में लिए था अरमान
मैं खुद कब
अलग हो गया
टूट कर
वक्त के डाली से
ऊपर था छितराया आसमान
निचे धुल भरा मैदान
सितारों के लोक से
चुरा लिया था एक सितारा
आकर जगमग थोरी देर कर
खुद बन लुटेरा
मुझको लुट कर चला गया
एक तड़पन एक जलन
एक आग दे गया
रोने को बस
दिन और रात दे गया !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' १२-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें