109 .
जब इक रोज
पूछा मैंने उनसे
कैसे भला जिएंगे हम ?
कह डाला उनहोंने
जैसे जी रहे हैं
जी लेंगे हम
कहना कितना आसान था
पर क्या गुजरी
पल - पल हर पल
जीने की खातिर
मरते रहे
रोते रहे
टूटते रहे
बिखरते रहे
पल - पल हर पल
पागलों की सी बैचेनी
दिल से टपकते थे खून
बन आँसुओं की मोती
एक क्षण को भी
न था मुझको चैन
लुट चुकी थी
जीवन भर की
हर हँसी हर ख़ुशी
चारों ओर सिर्फ दर्द का सैलाब
आँसू और गम ही थे
बस चारों ओर लबालब
हर पल मौत को पाने की बेचैनी
पर वो भी किस्मत की तरह
बेवफ़ा ही निकली !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
जब इक रोज
पूछा मैंने उनसे
कैसे भला जिएंगे हम ?
कह डाला उनहोंने
जैसे जी रहे हैं
जी लेंगे हम
कहना कितना आसान था
पर क्या गुजरी
पल - पल हर पल
जीने की खातिर
मरते रहे
रोते रहे
टूटते रहे
बिखरते रहे
पल - पल हर पल
पागलों की सी बैचेनी
दिल से टपकते थे खून
बन आँसुओं की मोती
एक क्षण को भी
न था मुझको चैन
लुट चुकी थी
जीवन भर की
हर हँसी हर ख़ुशी
चारों ओर सिर्फ दर्द का सैलाब
आँसू और गम ही थे
बस चारों ओर लबालब
हर पल मौत को पाने की बेचैनी
पर वो भी किस्मत की तरह
बेवफ़ा ही निकली !
सुधीर कुमार ' सवेरा '
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